Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 596
________________ 508 :: मूकमाटी-मीमांसा 1 शेष रह गया है । जब तक दाग नहीं मिटता, तब तक गुणों के सद्भाव की सम्भावना ही कहाँ होगी ? जिस प्रकार मक्खी अपने पैरों को साफ करके उड़ती है, साधक को भी चाहिए कि वह हर तरह के संग को त्यागकर निर्बाध डुबकी लगाए । साधु को चाहिए कि वह स्वाश्रित भाव से समृद्ध होकर रहे, न कि गृही की भाँति रहे । वस्तुत: साधक जब तक सिद्ध नहीं बनता तब तक शुद्ध का अनुभव उसे किस प्रकार सम्भव है ? क्या दुग्धपान से कभी घृतपान सम्भव है ? साधना वही अन्वर्थ है जिसमें अनर्थ न मिला हो । मोक्ष भले न मिले, पर पाप के गड्ढे से सदा दूर रहे | छोटा कंकड़ भी डूब जाता है और स्थूल काष्ठ भी नहीं डूबता - इसमें तर्क व्यर्थ है । यह तो स्वभाव - स्वभाव की बात है। यदि पुरुष सन्त है तो पाप भी राग का ध्वंस उसी तरह कर देता है जिस तरह गर्म पानी भी आग को शान्त कर देता है । भारत का साहित्य कुछ और ही है, शेष देशों के साहित्य की बात क्या कहूँ, हो सकता है - उनमें लालित्य ? जिसकी चेतना में भगवान् का वास हो-वहाँ जड़ताधायक राग का त्याग क्यों न हो ? चकवा को चन्द्र मिल जाय क्या तब वह चकवी का त्याग नहीं कर देता ? प्रारम्भिक रचनाएँ १. आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज के पावन चरणारविन्द में हार्दिक श्रद्धांजलि (१९७१) इस संकलन में आचार्यश्री की प्रारम्भिक रचनाएँ संकलित हैं। इसमें आपने शान्तिसागरजी का मूल वासस्थान मैसूर, बेलगाँव, भोज तथा उस क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली दूधगंगा तथा वेदगंगा जैसी नदियों के वर्णन के बाद भोज में स्थित कृषिकलाविज्ञ दयावान् मनुजोत्तम भीमगौड़ा का स्मरण किया गया है । वे पुण्यात्मा तथा वीरनाथ के धर्म के परमभक्त थे । उनकी तरह उनकी पत्नी भी सीता के समान सुन्दर और सुनीतिमान थीं । उनके दोनों बच्चे भी सूर्य-चन्द्र के समान सुशान्त प्रकृति के थे । ज्येष्ठ पुत्र था - देवगौड़ा और कनिष्ठ था सातगौड़ा। शैशवकाल में ही सातगौड़ा की पत्नी के अवसान हो जाने पर पुन: विवाह का जब प्रसंग आया तब उसने माँ से कहा- 'माँ, जग में सार और पुनीत है- जैन धर्म, अत: मेरी इच्छा है कि मैं मुनि बनूँ'। यह प्रस्ताव सुनकर माँ खिन्न हो उठी, पर पुत्र का हठ बना रहा । वह अपने संकल्प पर अड़ा रहा और श्री देवेन्द्रकीर्तिजी से दीक्षा ग्रहण कर ली और मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो ही गया । उनके शील-सौजन्य और तप का क्या कहना ? फिर एक बार शेडवाल गुरुजी पधारे। और आपके धर्मोपदेश का ही यूँ प्रभाव है : "भारी प्रभाव मुझ पै तब भारती का, देखो पड़ा इसलिए मुनि हूँ अभी का । " जन्म होगा, तो मरण होगा ही । इस नियम के अनुसार आचार्यवर्य गुरुवर्य ने अन्ततः सल्लेखनापूर्वक मरण हेतु समाधि ले ही ली। इसे देख मही में सारी जनता दुःखी हो उठी। अस्तु, आचार्यवर्य जहाँ भी गए हों, वहीं स्तुतिसरोज भेजता हूँ । इस प्रकार आचार्यश्री ने उनके पाद-द्वय में अपना भाल नवा दिया । २. आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज के पावन चरणारविन्द में हार्दिक श्रद्धांजलि (१९७१) हैदराबाद राज्य एक सुललित राज्य है। उसी के अन्तर्गत है - औरंगाबाद जिला । बड़ा ही शान्त स्थान है । यहीं एक जगह है - ईर, जिसके समान अमरावती में भी वैभव नहीं है। वहाँ एक जिनालय है। उसी ईर ग्राम में एक वृषनिष्ठ सेठ थे श्री रामचन्द्र । वे नामानुरूप गुणैकधाम थे। उनकी पत्नी भी मनमोहिनी सीतासमा परमभाग्यवती थी । इनकी कोख से दो शिशु जन्मे जो परम सुन्दर और सबके लाड़ले थे । उनका नाम था - श्री गुलाबचन्द्र तथा हीरालाल । माँ ने अपनी इच्छा सास बनने की व्यक्त की और लाड़ले के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा । पर बेटे ने विवाह की अनिच्छा ही व्यक्त की । माता इस निश्चय को सुनकर दु:खी हुई, पर बेटा अपने संकल्प पर दृढ़ बना रहा। हीरालाल यह कहकर

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