________________
510 :: मूकमाटी-मीमांसा
उबारकर सुख प्रदान करता है । परमेष्ठियों ने बताया है कि समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सदाचरण की समष्टि ही धर्म है। निर्मल दृष्टि से उनका अभिप्राय है तत्त्व-चिन्तन से दृष्टि में आने वाली निर्मलता । दर्शन विशुद्धि का वास्तविक अभिप्राय यही है । तत्त्व-मन्थन से विनय गुण भी उपलब्ध होता है जो विनयशील के प्रत्येक व्यापार से झरता रहता है। यह सिद्धत्व-प्राप्ति का मूल है। 'सुशीलता' में शील का अर्थ स्वभाव है जिसकी प्राप्ति के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना पड़ता है। जीवन को शान्त और सबल रखना ही निरतिचार है-यह आत्मानुशासन से ही सम्भव है। संवेग सराग सम्यग्दर्शन के चार लक्षणों में से एक है । इसका अर्थ है संसार से भयभीत होना । आत्मा के अनन्त गुणों में भी यह एक गुण है । संवेग से दृष्टि लक्ष्य पर एकाग्र हो जाती है। त्याग से मतलब है विषयों का त्याग । उनमें अनासक्ति । यह तभी सम्भव है जब निजी सम्पत्ति की पहचान हो जाय । जागरूक ही त्याग कर सकता है। सत् तप : दोषनिवृत्ति के लिए समीचीन तप परम रसायन है और एतदर्थ निवृत्ति के मार्ग पर जाना श्रेयस्कर है । साधु-समाधि सुधा-साधन : इसमें साधु-समाधि का अर्थ है-आदर्श मृत्यु अथवा सज्जन का मरण । तत्त्वत: हर्ष-विषाद से परे आत्मसत्ता की सतत अनुभूति साधु-समाधि है । आदर्श मौत वही है जिसे मौत के रूप में न देखा जाय । यह तभी सम्भव है जब हमें अपनी शाश्वतता का भान हो जाय । वैयावृत्य : इसका अर्थ है-सेवा । तत्त्वत: देखा जाय तो पर-सेवा से अपने मन की वेदना मिटाकर सेवक अपनी ही सेवा करता है । दूसरे तो मात्र निमित्त हैं। अर्हत् सेवा है पूज्य की उपासना । वास्तविक भक्ति यही है । अर्हत् होने की योग्यता प्रत्येक उपासक में विद्यमान है। अत: उसकी अभिव्यक्ति के लिए उसे अपने में ही डूबना होगा, समर्पित होना होगा। बाहर का पूज्य तो मात्र निमित्त है । इसी प्रकार आचार्य-स्तुति का भी मर्म समझें । अरिहन्त परमेष्ठी के बाद आचार्य परमेष्ठी स्तुत्य हैं, क्योंकि वही शिष्य को तत्त्व-बोध कराकर तत्त्वात्मा बना देता है। वस्तुत: मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा पद साधु का है। आचार्यत्व तो उसकी एक उपाधि है जिसका विमोचन मुक्तिप्राप्ति से पूर्व होना अनिवार्य है । आचार्य उपदेश और आदेश तो देता है पर साधना पूरी करने के लिए साधु पद को अंगीकार करता है। शिक्षा गुरु को उपाध्याय माना जाता है । वह स्तुत्य इसलिए है कि वह स्वयं संसार की प्रक्रिया से दूर रहकर साधक को भी वह प्रक्रिया बताता है । भगवद् भारती भक्ति में वचन की अपेक्षा प्रवचन की महत्ता का गान है । साधारण रूप से बोले गए शब्द वचन हैं, पर अज्ञान का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करके जो विशिष्ट शब्द बोले जाते हैं, वे प्रवचन हैं। वचन का द्रव्यश्रुत से और प्रवचन का भावश्रुत से सम्बन्ध है । भावश्रुत अन्दर की पुकार है। विमल आवश्यक में बताया गया है कि समल अनावश्यक कर्म करता है और विमल या अवशी (इन्द्रिय और मन के वश में न रहने वाला) ही आवश्यक कार्य सम्पन्न करता है। स्वभाव में प्रतिष्ठित होने के अनुरूप किया जाने वाला कार्य ही आवश्यक है न कि विषयवासनातर्पक । धर्म प्रभावना में उस भावना को प्रकृष्ट माना गया है जो आत्मतत्त्व प्राप्ति विषयक हो । गन्तव्य की ओर ले जाने वाला मार्ग ही धर्म है, अत: उसकी प्रभावना ही धर्म प्रभावना है । वात्सल्य है समानधर्मियों के प्रति करुणभाव-सजातियों के प्रति करुणभाव । साधुजनों के प्रवचन में यही भाव झरता रहता है । प्रवचन ही क्यों, सभी व्यवहार में । मनुष्य में प्रेम की एक ऐसी डोरी है जो सजातियों को बाँध लेती है। गुरुवाणी (१९७९)
___इस उपखण्ड में जयपुर, राजस्थान में हुए प्रवचनों की साररूप कुल आठ गुरुवाणियाँ संकलित हैं । और वे इस प्रकार हैं - आनन्द का स्रोत-आत्मानुशासन, ब्रह्मचर्य-चेतन का भोग, निजात्मरमण ही अहिंसा है, आत्मलीनता ही ध्यान, मूर्त से अमूर्त, आत्मानुभूति ही समयसार, परिग्रह तथा अचौर्य । आत्मानुशासन : सभी समस्याओं का एक समाधान है-अनुशासन, और सभी समस्याओं का एक कारण है - अनुशासनहीनता । कर्तृत्वगत स्वातन्त्र्य को बुद्धिगत विवेक से ही आचरण में उतारा जा सकता है । स्व=आत्मा, तन्त्र्य