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: मूकमाटी-मीमांसा
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आस्था ही वह मूल है जो आचरण को पुष्पित, पल्लवित, सफल बनाती है । उसको ही सींचना है :
"आस्था के बिना आचरण में / आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं । फिर, आस्थावाली सक्रियता ही/निष्ठा कहलाती है ।" (पृ. १२० ) "आघात मूल पर हो / द्रुम सूख जाता है,
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मूल सलिल तो / पूरण फूलता है।” (पृ. १२५)
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आचार्यजी की करुणा से भरपूर कोमल दृष्टि गरीबों की टपकती कुटिया से लेकर जीवन के सभी पक्षों पर गई । कहीं-कहीं पर जीवन में काम आने वाली बड़ी ही साधारण बातों का उल्लेख है
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'आधा भोजन कीजिए / दुगुणा पानी पीव ।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी / वर्ष सवा सौ जीव !” (पृ. १३३)
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'आमद कम खर्चा ज्यादा / लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा / लक्षण है पिट जाने का !” (पृ. १३५)
जीवन के कटु सत्य का उल्लेख बड़ी ही सीधी भाषा में एक स्थल पर किया गया है :
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"भोग पड़े हैं यहीं / भोगी चला गया,
योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया । " (पृ. १८० )
मन्त्र के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें कही जाती हैं । आचार्यजी ने इस सम्बन्ध में बड़े पते की बात कही
" मन्त्र न ही अच्छा होता है / ना ही बुरा / अच्छा, बुरा तो
अपना मन होता है / स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है ।" (पृ. १०८ - १०९)
मोक्ष से सम्बन्धित स्थापना भी बड़ी सहज, सटीक है :
" अपने को छोड़कर / पर - पदार्थ से प्रभावित होना ही
मोह का परिणाम है / और / सब को छोड़कर
अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है।” (पृ.१०९-११०)
मन का अस्तित्व ही मनुष्य को अनेक प्रकार की विकृतियों से जकड़ता है । अहंवादी बनाता है । विनय से रखता है। 'मूकमाटी' में बड़ी सूझ-बूझ से कहा गया है :
"मन की छाँव में ही /मान पनपता है
मन का माथा नमता नहीं / न - 'मन' हो, तब कहीं
नमन हो 'समण' को / इसलिए मन यही कहता है सदानम न ! नम न !! नम न !!!" (पृ. ९७ )
जन-मानस में प्रचलित अनेक कहावतों और सूक्तियों का भी आकर्षक प्रयोग इस ग्रन्थ में मिलता है :