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मूकमाटी-मीमांसा :: 451
प्रयत्नशील, चेष्टारत हैं । आपकी विचार वृत्ति के सभी पहलुओं के मूलाधार विचारणीय, मननशील, मानवीय शुद्ध संवेदना से युक्त लहराते सागर-सम, अचिन्त्य सौन्दर्य के साथ गहरी अनुभूतियों से समाहित हैं।
कृतिकार व कृति का वर्णन करना सूर्य के लिए दीपक दिखाने के समान है । परन्तु क्या करें, हम सूर्य के लिए दीपक नहीं दिखा रहे, अपितु भक्तिवश दीपक के माध्यम से उस सहस्र रश्मिपुंज ज्ञानसूर्य की अर्चना कर वन्दना कर रहे हैं। आपके काव्य-कला-कौशल को देखने वा इसका पान करने के लिए हृदय व आँखें युगपत् मचल उठीं । क्या करें, अगर शक्ति होती तो सहस्र नेत्र बनाकर देखते ही नहीं अपितु आनन्दामृत का रसास्वादन भी कर लेते । किसी ने कहा
"तुझे देखू भी, बातें भी करूं कैसे
आँख अपना मज़ा चाहे, दिल अपना मज़ा चाहे।" महाकाव्य की तुलना में जैसे ही मैं आगे बढ़ा तो देखता हूँ कि जैसे 'रघुवंश', 'मेघदूत' (कालीदास), 'सावित्री' (अरविन्द), 'वीरायन' (रघुवीरशरण) एवं 'ओ अहल्या' (डॉ. वर्मा) आदि की शृंखला में उदित नक्षत्र-सम 'मूकमाटी' भी अपनी एक कड़ी जोड़ती है। इसमें बालक से पालक, कंकर से शंकर, बीज से वृक्ष, बचपन से पचपन
तित से पावन बनने की अवर्णनीय यात्रा को प्रवहमान किया गया है। वैसे तो 'ओ अहल्या' या 'रघुवंश' (कालीदास) के काव्य का अध्ययन करने के पश्चात् व्यक्ति उनकी अतल गहराइयों में पहुँचकर, उनकी आधारभूत विषय वस्तु को प्राप्त कर ही लेता है, परन्तु 'मूकमाटी' में ठोस आधार खोजना सिन्धु में फेंके गए मणि के समान अर्थात् लहरों में लहराते रहकर अतुलनीय तक न पहुँचने के समान है । इन लहरों में महाकवि की तुलना में सभी उपमाएँ अपने आपको बौनी या कान्तिहीन सूर्य-सम अनुभव करती हैं।
यहाँ पर आचार्यश्री कवि हैं, अन्तर्मुखी कवि हैं । स्वानुभवी होकर अनुभव के आधार पर अन्तर्मुख से लोकमंगल की कामना को परिपूर्ण प्रवाहित कर आतंक को समाप्त करने, राष्ट्र व समाज में शान्ति का साम्राज्य लाकर मानवता के सुधार की भावना की गई है। जैन दर्शन अन्य सभी नास्तिक दर्शनों को सही दशा का दर्शन कराकर, दिशाबोध देकर अपनी आस्तिकता सिद्ध किए बिना नहीं रह सकता है।
आचार्य श्री विद्यासागरजी भाषा एवं भावों के धनी हैं। आपका अनेक भाषाओं पर असाधारण अधिकार है। कविताओं का विश्लेषण करने में आप कुशल एवं सिद्धहस्त हैं । 'मूकमाटी' में भाव व भाषा का इतना सुन्दर विनियोग हुआ है कि प्रकृति का सौन्दर्य आँखों के सामने प्रवाहित होने लगता है । भाषा की प्रांजलता, शब्द चयन की समृद्ध, सुबोध शैली देखकर पाठक के मन का सहज ही व्यायाम हो जाता है । यहाँ पर शृंगार को भी शृंगारित कर, नवोदित विचारों से समाज को लाभान्वित व परिमार्जित कर, उनके उत्थान में दिव्य आलोक-सम एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । आपने शब्दों व भावों के माध्यम से कृति में जो उच्चादर्श मूर्तिमान् किया है, उसकी मिसाल सम्भव नहीं है। साहित्य, सभ्यता और संस्कृति की त्रिवेणी के संगम से युक्त नैतिकता, व्यावहारिकता, राजनैतिक अराजकता, धार्मिक वातावरण, धन की मदान्धता, आर्थिक असमानता व सामाजिक विसंगतियों को अपने अंचल में लेकर तथा उनका स्वरूप प्रकट कर, विज्ञान व दर्शन को अपने अंचल में समेटकर, वर्तमान इतिहास के लिए एक अद्वितीय भण्डार प्रदान किया है। सरल और समन्वयता का प्रवहमान्, लयबद्ध मेल बिठा कर, सत्य तथ्य के साथ विश्व के विराट् वैभव को आपने विविध दृष्टि भंगिमाओं के माध्यम से दृश्यांकित किया है।
कहाँ तक कहें, ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं बचा जो कवि की कलम से अछूता रहा हो। इसमें शब्दों की तोड़फोड़ के साथ मानसिक आयाम कर, उनमें नवीन भाव जगाकर, नए नूतन भिन्न-भिन्न अर्थ तथा भाव प्रदान किए हैं।
[नवभारत (दैनिक), नागपुर, महाराष्ट्र, २६ अप्रैल, १९९२]