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456 :: मूकमाटी-मीमांसा
जिसके पास हीरा है उसे अंटी में लगा लो, उसका प्रचार-प्रसार अथवा उसे बार-बार खोलकर देखने से चोर-डकैतों को क्यों चोरी हेतु आमन्त्रण देते हो ? किन्तु ज्ञान ऐसा नहीं रहता । इस रत्न को पहचानने के लिए जौहरी की आँख चाहिए। 'बिहारी' कहते हैं :
"गंधी गंध गुलाब को गवई गावत कौन ?
कर फुलेल को आचमन गौठ रहे सब मौन ॥" अर्थात् गाँव में किसान या ग्रामीण के हाथ में इत्र है, जो गन्धयुक्त होकर भी स्वाद की अपेक्षा कड़वा होता है । ऐसे इत्र को हाथ में लेकर वह घी या तेल के समान उसे भी चाट गया। फिर भी कहता क्या है ? 'मीठो कहत तराय।' उसका क्या कहना, वह तो इत्र को मीठा कहता है जो चखने में कड़वा होता है और उसका विशिष्ट/खास गुण जो गन्ध होती है उसके बारे में कुछ भी नहीं कहता, जानता, बतलाता । 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने मिट्टी की पहिचान, मिट्टी की छुवन के रूप में रूपकात्मक अभिव्यक्ति की है। उसमें जहाँ कंकर प्रतीक हैं तो वहीं मिट्टी भी प्रतीक है एवं कुम्भकार भी प्रतीक है। इसीलिए 'मूकमाटी' प्रतीकात्मक महाकाव्य है।
मिट्टी के साथ रहते हुए भी मिट्टी में नहीं घुलने/मिलने वाले कंकर, जिसे वर्णहीन कहकर हटा दिया गया है, उसे उससे पृथक् कर दिया है । मिट्टी को कूटा, छाना गया और कंकर को हटा दिया गया, क्योंकि घट निर्माण एक वर्ण की, एक जैसी मिट्टी द्वारा ही सम्भव है । निर्माण एक वर्ण या एक तत्त्व के द्वारा होता है, क्योंकि मृदु में यदि कर्कशपना आ जाय तो कार्य बड़ा मुश्किल हो जाएगा । अतएव घट निर्माण कार्य में लगे कुम्भकार के हाथ को निर्माण प्रक्रिया में सरलता, सहजता प्राप्त हो गई। कुम्भकार जो पहले नायक के रूप में था उसे अब मैं नायक नहीं मानता अपितु कुम्भकार है निर्माता, रूप देनेवाला जो हमारे यहाँ 'गुरु' जैसे उच्च दर्जे से जाना, पहचाना जाता है।
प्रायः ज्यादातर लोग परम्परावादी होते हैं, पुराणपन्थी होते हैं तथा लोक वेद की जो मर्यादा हमारे घरों में आ रही है, उसी के पिछलग्गू बन उसी के पीछे दौड़ते चले जा रहे हैं। कबीर कहते हैं :
"पाछे भागा जात था लोक वेद के साथ।
आगे तो सद्गुरु मिला दीपक दीया हाथ ॥" यह गतानुगतिकता की भीड़ चली जा रही है और हम गति परम्परा से उसमें चले जा रहे हैं। कबीर ने यह नहीं कहा कि सद्गुरु पीछे से दौड़ते हुए आकर शिष्य के हाथों में अलादीन का चिराग़ रख देते हैं अपितु वह बतलाते हुए कहते हैं-'आगे तो सद्गुरु मिला।' अर्थात् उस प्रवाह की दशा में भी गुरु चिन्तन क्रान्तिकारी रूप से विपरीत दिशा से आकर पथ के भटकाव से बचने के लिए हमारे हाथ में दीपक रखता है। उस दीपक से जो प्रकाश मिलता है उससे शिष्य की ज़िन्दगी जगमगा उठती है।
मिट्टी सनातन है और उसमें गुण-दोष भी सनातन हैं। लेकिन वही मिट्टी जब किसी कुशल गुरुरूपी कुम्भकार के हाथ लग जाती है तो उसके हाथ से बने हुए घड़े के नाम के आगे एक विशेषण और लगाया जाता है- 'मंगल घट'। यह मात्र खाली घट नहीं है इसीलिए 'मूकमाटी' की कथा का एक पात्र जो स्वर्ण घट है वह इसकी पवित्रता/उच्चता से ईर्ष्या करता है । स्वर्ण कलश को मिट्टी के इस मंगल घट से इसलिए ईर्ष्या होती है, क्योंकि सोने के घट का जो चिन्तन है वह अकल्याणकारी है जबकि मिट्टी के मंगल घट का चिन्तन कल्याणकारी है। तभी तो वह गुरु के चरण पखारने के काम आता है। न्यायशील पवित्र उद्देश्य के लिए ही उसका जीवन है। उससे उसका उद्देश्य सार्थक हो जाता है। यही माटी की सार्थकता का प्रतीक है । माटी, जिसे सबसे हीन समझकर सभी कुचलते हैं, पद दलित मानी जाती है किन्तु जहाँ मातृभूमि की गरिमा, गौरव की बात आती है, वहाँ हम कहते ही हैं-'इस मिट्टी का तिलक करो यह माटी है बलिदान