Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 584
________________ 496 :: मूकमाटी-मीमांसा सूत्र, श्रमण धर्म सूत्र, व्रत सूत्र, समिति-गुप्ति सूत्र, आवश्यक सूत्र, तप सूत्र (बाह्य तप और आभ्यन्तर तप), ध्यान सूत्र, अनुप्रेक्षा सूत्र, लेश्या सूत्र, आत्मविकास सूत्र, सल्लेखना सूत्र-इस प्रकार कुल १८ सूत्रों के अन्तर्गत गाथाएँ इस खण्ड में संकलित हैं। 'तत्त्व दर्शन' नामक तृतीय खण्ड तत्त्व दर्शन से सम्बद्ध है। इसमें तत्त्व दर्शन सूत्र, द्रव्य सूत्र, सृष्टि सूत्र जैसे तीन सूत्रों के अन्तर्गत गाथाओं का संकलन है । चतुर्थ खण्ड 'स्याद्वाद' में अनेकान्त सूत्र, प्रमाण सूत्र (प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण), नय सूत्र, स्याद्वाद-सप्तभंगी सूत्र, समन्वय सूत्र, निक्षेप सूत्र के साथ समापन एवं वीर-स्तवन के अन्तर्गत भी गाथाओं का समावेश है । इस खण्ड में कुल ८ सूत्र हैं। कुन्दकुन्द का कुन्दन (२६ अक्टूबर, १९७७) आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा प्राकृत भाषा में प्रणीत 'समयसार' का यह अनूदित रूप है । यह ग्रन्थ भुक्तिमुक्ति का बीज है । इस ग्रन्थ में जीवाजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्यपापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार एवं सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार का समावेश है। ____ इस ग्रन्थ का अनुवाद करने में आचार्यश्री के समक्ष कुछ कठिनाइयाँ भी आई हैं, जिनका उल्लेख उन्होंने इस ग्रन्थ में किया है । ग्रन्थ पर्याप्त गम्भीर है, अत: कई टीका-प्रटीकाओं का सहारा लेना पड़ा । उन्होंने माना है कि कहींकहीं शब्दानुवाद भी है, पर अधिसंख्य भावानुवाद जैसा उत्तम और प्रशस्त रूपान्तरण हुआ है। इस ग्रन्थराज समयसार' पर एक वृत्ति 'तात्पर्य' संज्ञक है, जो जयसेनाचार्य द्वारा प्रणीत है। तदुपरि पूज्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति' का भी मन्थन करना पड़ा । चेतना की लीलानुभूति से आप्यायित अन्तस् समुच्छल हो उठा और लयाधृत छन्द में निर्बाध बह चला । यही है सारस्वत समावेश दशा, जिसमें अनुभूति ‘समुचितशब्दच्छन्दोवृत्तादिनियन्त्रित होकर बह निकलती है। काव्य की रचना-प्रक्रिया का विवेचन करते हुए अभिनवगुप्तपाद ने यही कहा है । 'समयसार' का ही नहीं, नाट्यकाव्यात्मक आत्मख्यातिगत कलशारूप २७८ कारिकाओं का भी रूपान्तर बन पड़ा है। आचार्य कुन्दकुन्द की तीन रचनाएँ बड़ी प्रौढ़ मानी जाती हैं - प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय तथा समयसार । अमृतचन्द्रसूरि ने इन तीनों पर टीकाएँ लिखी हैं। इन उभय टीकाओं में गाथाओं की संख्या समान नहीं मिलती । समस्या यह भी आई-आचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं में कम और आचार्य जयसेन की टीकाओं में अधिक गाथाएँ क्यों हैं ? प्रवचनसार' की चूलिका का अवलोकन करते हुए 'स्त्रीमुक्ति निषेध' वाले प्रसंग पर ध्यान गया। वहीं १०१२ गाथाएँ छूटी हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने इन पर टीकाएँ नहीं लिखीं। इससे अनुमान किया गया कि आचार्य अमृतचन्द्र को स्त्रीमुक्ति निषेध का प्रसंग इष्ट प्रतीत नहीं था। इन टीकाओं की प्रशस्तिओं से पता लगता है आचार्य जयसेन मूलसंघ के और अमृतचन्द्र सूरि काष्ठासंघ के सिद्ध हैं। आचार्यश्री को इससे एक नवीन विषय मिला। गम्भीर ग्रन्थान्तर का अधिगम, भाषान्तरण, लयबद्ध पद्यबद्धीकरण - यह सब एक से एक कठिन कार्य हैं, पर लगन और अभ्यास से सब कुछ सम्भव है । आत्मख्यातिगत २७८ कारिकाओं का संकलन-'कलशा' नाम से ख्यात है । इसके १८८ वें काव्य के विषय में छन्द को लेकर के कठिनाई आई । वह न गद्य जान पड़ा और न पद्य । काफी जद्दोजहद के बाद लगा कि यह तो निराला और अज्ञेय की रचनाओं में प्राप्त अतुकान्त छन्द का प्राचीन रूप है। इसमें एक खोज यह भी हुई कि आचार्य अमृतचन्द्र संस्कृत लयात्मक काव्य के आद्य आविष्कर्ता हैं। ___ आचार्यश्री ने उन लोगों से असहमति व्यक्त की है जो लोग शब्दज्ञान, अर्थज्ञान और ज्ञानानुभूति को परिग्रहवान् गृहस्थ और प्रमत्त में भी मानते हैं। उनका कहना है कि ज्ञानानुभूति तो आत्मानुभव है-शुद्धोपयोग है । वह परिग्रह और प्रमादवाले गृहस्थ को तो क्या होगा-प्रमत्त दिगम्बर मुनि को भी नहीं हो सकता। भोग और निर्जरा एक साथ नहीं चल सकते । आगम इस मान्यता से असहमत है।

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