Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 585
________________ निजामृतपान / ' कलशागीत' (२१ अप्रैल, १९७८) 'समयसार' का पद्यानुवाद 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' और अध्यात्म रस भरपूर 'समयसार - कलश' का पद्यानुवाद ‘निजामृतपान’ ('कलशागीत' नाम से भी) है। यह ग्रन्थ संस्कृत में मूलरूप में है । इसमें देव - शास्त्र - गुरु स्तवन के बाद, 'ज्ञानोदय छन्द' में कलशों का पद्यबद्ध रूपान्तर प्रस्तुत हुआ है। इसका लक्ष्य है जैन चिन्तन में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली की गाँठें खुल जायँ ताकि पाठक उसका भरपूर आस्वाद ले सकें । इसमें कई अधिकार हैंजीवाजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्यपापाधिकार, आम्रवाधिकार, संवराधिकार, निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार, स्याद्वादाधिकार तथा साध्यसाधकाधिकार । अन्ततः मंगलकामना के साथ यह भाषान्तर सम्पन्न हुआ है । द्रव्यसंग्रह (११ जून, १९७८ एवं १६ मई, १९९१) मूलत: यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इसके रचयिता हैं नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव । मंगलाचरण, श्रीगुरु नमन तथा ग्रन्थ के निर्माण काल और स्थान निर्देश के साथ यह भाषान्तर अलग-अलग छन्दों में किए जाने से दो भागों में मुद्रित हुआ है। 'वसन्ततिलका' छन्द में अनूदित प्रथम भाग में जैन दर्शन के विवेच्य विषय चर्चित हुए हैं। जैसे, जीव स्वदेह परिमाण है। वह स्वभाववश ऊर्ध्वगामी होता है। दर्शन के चार भेद, ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि जैसे भेद, प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का निरूपण, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्त सत् द्रव्य, चतुर्विध गुणयुक्त पुद्गल, पाँच अस्तिकाय, कर्म, बन्ध, संवर तथा निर्जरा आदि तत्त्वों की चर्चा की गई है। सबका पर्यवसान मोक्ष में है । 'द्रव्य संग्रह' भाग दो- में 'ज्ञानोदय' छन्द में इस ग्रन्थ को पुनः अनूदित किया गया है। पूर्वोक्त विषय रूप ही जीव-अजीव, अष्ट कर्म, अष्ट गुण, शुद्ध आत्मा का कर्मातीत और वैभाविक गुणों से रहित होना, कर्मों के विविध भेदों, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का निरूपण, पूर्ण ज्ञानरूप केवलज्ञान की प्राप्ति आदि भी वर्णित है । मूकमाटी-मीमांसा :: 497 अष्टपाहुड़ (३१ अक्टूबर, १९७८) आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रणीत प्राकृत भाषाबद्ध ग्रन्थ का यह पद्यबद्ध रूपान्तर नितान्त उपादेय और कल्याणकर है । इसके आरम्भ में मंगलाचरण और आचार्यों को नमन है । तदनन्तर जिनागम का रहस्य अनावृत किया गया है। इसमें दर्शन पाहुड़, सूत्र पाहुड़, चारित्र पाहुड़, बोध पाहुड़, भाव पाहुड़, मोक्ष पाहुड़, लिंग पाहुड़ तथा शील पाहुड़ का विवरण प्रस्तुत कर अन्य ग्रन्थों की तरह इसका भी समापन निर्माण के स्थान एवं समय परिचय के साथ हुआ है। · नियमसार (२५ अगस्त, १९७९ ) आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत प्राकृत भाषाबद्ध 'नियमसार' का यह भाषान्तरण पद्यबद्ध रूप में प्रस्तुत हुआ है । मोह और प्रमाद के निवारणार्थ यह पद्यमय अनुवाद किया गया है । केवली या श्रुतकेवली आचार्यों ने जिस नियमसार को कहा है, वही यहाँ विद्यमान है । प्रवृत्ति एवं निवृत्ति तो प्राणिमात्र के लक्षण हैं, पर मोक्षाधिकारी मानव को स्वैराचार वर्जित है । उसे यदि स्वभाव से प्रतिष्ठित होना है तो नियम-संयम पूर्वक जिजीविषा की चरितार्थता के लिए चर्या बनानी पड़ेगी : D " जो दोष मुक्त कृत कारित सम्मती से, तो शुद्ध, प्रासुक यथागम - पद्धती से ।

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