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मूकमाटी-मीमांसा :: 455
भी देखा हो, ऊँचाई से भी देखकर परखा हो।
हमारे पूर्वजों ने इस माटी को अश्वक्रान्त, रथाक्रान्त, विष्णुक्रान्त कहा है और वे प्रात: शय्या से उठकर धरती का हाथों से स्पर्श करके क्षमा याचना करते हुए कहते हैं-'हे विशालहृदया ! मुझे क्षमा करो। तुम तो सिर से छूने लायक हो और मैं तुम्हें पैर से छू रहा हूँ, अत: मुझे क्षमा कर दो।' अत: इस मृत्तिका, मिट्टी का महत्त्व निश्चयत: अधिक श्रेष्ठ है । इस मिट्टी के कारण ही संसार मृत्युलोक कहलाता है । जायसी ने भी कहा है कि जो यहाँ उदित होता है, इस मृत्युलोक में उसका अस्त भी सुनिश्चित है। जो उठता है उसका पतित होना भी सुनिश्चित है।
माटी में एक गुण और है कि हवा इसे उड़ा कर ले जाती है लेकिन धरती पर ही वापिस लौटती है। मेरे ख्याल से सन्तों, आचार्यों की चेतना और भी अधिक गहन, सूक्ष्म होती होगी। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि भूलोकवासियों को आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' के माध्यम से यह बतलाया है कि चन्द्रमा पर उतरने वाले वैज्ञानिको!, मंगलबुध-सूर्य-बृहस्पति की दिशा में खोजी राकेट भेजने वाले वैज्ञानिको!, बौद्धिक प्राणियो!, विज्ञानवादियो ! अथवा भौतिकवादियो ! तुम अभी दूसरे ग्रह-नक्षत्र का ही अनुसन्धान कर रहे हो । कभी अपनी माटी, अपनी निज धरती के धरातल पर भी उतरो और उसको पहचानो । इसकी समस्याओं को पहचानो, देखो और उसके निराकरण के लिए भी प्रयासरत हो । यह माटी जिसे तुम खराब समझते हो, वह तुम्हारी 'माँ' है। धरती पर जितना भी सृजन हुआ है वह सब इसी धरातल पर ही हुआ है, अत: सबकी जननी यही धरती 'माँ' है। इसे ही आचार्यश्री ने विशेषण का रूप दिया है'मूकमाटी'।
__मेरे ख्याल से धरती पर जितनी भी अभिव्यक्तियाँ हैं, जितनी वाणी और ध्वनियाँ हैं, जितने भी शब्द हैं वे सभी इसी मूकता से ही जन्मे हैं। 'गीता' जैसे वाङ्मय में भगवान् कृष्ण ने धनंजय अर्जुन से कहा-'सत्य बोलो' । तभी लोकाचार को देखते हुए कहा-'प्रिय बोलो। अप्रियवचन/शब्द मत बोलो'। ये तो मिट्टी/धरती पर रहने का व्यवहार है। धरती पर आदमियों के जितने रिश्ते हैं वो भी वाणी के जरिए से ही होते हैं। शब्दों का लिखित रूप तो बाद में हुआ पहले तो उच्चरित वाणी ही है, अतएव इस देश में वाणी का महत्त्व है । शब्द को बड़ा माना जाता है । अविवेकपूर्ण वार्तालाप करने से वाणी का महत्त्व चला जाता है। इसीलिए सन्तजनों ने कहा है- 'वाणी का संयम करो, फिर बोलो।' सज्जन पुरुष के मिलने पर, विचारशीलजन मिलने पर उनसे बोलने का उपदेश आचार्यों, सन्तों का सदैव रहा है'सन्तजन मिलें सो कछु तो कहिए । मिलहिं असन्त तो मौन ही रहिए।' असन्त/असाधुजन के सामने वाणी का अपव्यय नहीं करना चाहिए।
. 'मूकमाटी' के मौन के अन्दर जो धैर्य, सहिष्णुता, गहनता है और उसमें जो गम्भीरता, उत्पादकता एवं सृजनशीलता गुण है वह ढिंढोरा नहीं पीटता, अपितु चुप ही रहता है। हमारे घरों में हमारी जन्म देने वाली वृद्ध माताएँ ८०-८५ वर्ष की होते हुए भी बैठी रहती हैं अथवा सबकी बातें मौनपूर्वक सुनती रहती हैं। किन्तु जब बोलती हैं तो कल्याणकारी बातें ही बतलाती हैं, अकल्याणकारी/अहितकारी बातें नहीं। ठीक इसके विपरीत क्रम में आजकल के लड़के दिनभर ही बहुत कुछ बोलते ही रहते हैं। 'मूकमाटी' के माध्यम से आचार्यश्री ने सम्भवत: यही कहने के कोशिश की है कि माटी का जो मौन है और इस मौन के पीछे जो दर्शन है, वह विशिष्ट प्रेरणा है, दिव्य संगीत है । उसे ग्रहण करना ही हम सभी के लिए श्रेयस्कर दशा है।
'मूकमाटी' खण्डकाव्य है या महाकाव्य, इस बहस के चक्कर में प्रस्तवनकार' की तरह मुझे नहीं घूमना, क्योंकि उन मानदण्डों में यह कृति आती ही नहीं है। आध्यात्मिक परिवेश की यह मौलिक कृति है, अपने ढंग की एक तेजस्वी कृति है। कविता में क्या होता है ? बिहारी ने ७०० दोहे लिखे और सर्वश्रेष्ठ कवियों की प्रथम पंक्ति में उनके ७०० दोहे ही अपनी श्रेष्ठता दर्शाते हैं। बिहारी ने 'सतसई में यह भी लिखा है कि साहित्य को गाड़ी या तराजुओं से नहीं नापा जाता । कबीर ने कहा- "हीरा पायो गाँठ गठियाओ, बार-बार वह क्यों खोले, मन में चूहा क्यों बोले ?" अरे !,