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मूकमाटी-मीमांसा :: 481 . “यह कटु सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) 'मूकमाटी' में भावपक्ष के साथ कलापक्ष भी बड़ा सुन्दर बन पड़ा है। शब्दालंकारों के साथ अर्थालंकारों की छटा भी बड़ी मनमोहक है। दोनों प्रकार के अलंकार प्रयत्न साध्य न होकर स्वाभाविक रूप से ही काव्य में प्रवाहित हुए हैं। रचनाकार के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नई-नई धार देते हैं, नई-नई परतें उघाड़ते हैं। शब्द की संगठना को लेकर उसकी व्युत्पत्ति को अनेक रूप दिए गए हैं। शब्दों के प्रचलित रूप के अतिरिक्त, उनकी कई-कई नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई
हैं।
नारी शब्द की व्याख्याएँ देखिए :
"इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन-सारी मित्रता/मुफ्त मिलती रहती इनसे ।। यही कारण है कि/इनका सार्थक नाम है 'नारी'/यानी
'न अरि' नारी"/अथवा/ये आरी नहीं हैं/सोनारी।" (पृ. २०२) नारी के ही पर्यायवाची 'महिला' शब्द की व्याख्या देखिए :
"जो/मह यानी मंगलमय माहौल,/महोत्सव जीवन में लाती है 'महिला' कहलाती वह ।/जो निराधार हुआ, निरालम्ब,/आधार का भूखा जीवन के प्रति उदासीन - हतोत्साही हुआ/उस पुरुष में... मही यानी धरती/धृति-धारिणी जननी के प्रति/अपूर्व आस्था जगाती है । और पुरुष को रास्ता बताती है/सही-सही गन्तव्य का
महिला कहलाती वह !" (पृ. २०२) इसी प्रकार अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता आदि शब्दों की व्याख्या भी द्रष्टव्य है। - यह रचना काव्य होते हुए भी कथा-कहानी-सी रोचकता लिए हुए है। इसमें निर्जीव माने जाने वाले पात्रों के सजीव एवं चुटीले वार्तालापों में सजीवता है।
इस प्रकार 'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी काव्य जगत् की एक अनूठी कृति है । आधुनिक जैन हिन्दी काव्य साहित्य में तो इसके समकक्ष की शायद ही कोई रचना होगी। काव्य की दृष्टि से यह रचना हिन्दी काव्य के महारथियोंजयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' आदि की रचनाओं के समकक्ष है। साहित्य जगत् के बन्धुओं से यह अपेक्षा है कि हम स्वयं इसका अनुशीलन कर अपने जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाएँ तथा इसका प्रचार व प्रसार कर भारतीय काव्य साहित्य में इसको उचित स्थान दिलाएँ।