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मूकमाटी-मीमांसा :: 487
घ - वासन्तिक परिणति
दीक्षा के अनन्तर शास्त्रज्ञान की तीव्र पिपासा ने मनीषियों के सौजन्य से तृप्ति पाई । सन् १९६९ में श्री ज्ञानसागरजी ने आचार्यपद ग्रहण किया। फिर आचार्य ज्ञानसागरजी ने नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान में मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि. सं. २०२९, २२. नवम्बर, १९७२ को गुरुदक्षिणा के रूप में विवश कर मुनि विद्यासागरजी को आचार्यपद पर अभिषिक्त कर अपनी सल्लेखना उन्हीं की देखरेख में प्रारम्भ की और १ जून, १९७३ को समाधिस्थ हो गए। इनकी तपश्चर्या से परिवार इतना प्रभावित हुआ कि दोनों भाइयों और बहिनों ने भी गृहत्याग कर जैन प्रस्थान में दीक्षा ग्रहण की। बाद में तो माता-पिता भी मोक्षमार्ग में शरणागत हो गए । “ योऽनूचानः स नो महान् " - होता है। कहा गया है - " न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः " - ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध सर्वोच्च होता है । आचार्य श्री विद्यासागर इस शिखर पर आरूढ़ हो चुके थे।
आचार्यपद पर विभूषित होकर संघ संचालन का दायित्व अवधानपूर्वक सँभाल रहे थे । चातुर्मास आदि की कालावधि में उनके द्वारा रचना प्रणयन का जो शुभारम्भ हुआ, अनेक स्तोत्र तथा काव्यों के निर्माण की परम्परा चली उसकी वासन्तिक परिणति 'मूकमाटी' में हुई । साथ-साथ संघ में दीक्षादान का क्रम भी निरन्तर चलता रहा। इसी के साथ ही महिला वर्ग में ज्ञान और चारित्र के उन्नयन हेतु सागर तथा जबलपुर, मध्यप्रदेश में दो आश्रमों की भी स्थापना की। वे 'ब्राह्मी विद्याश्रम' के नाम से जाने जाते हैं । '८४ जबलपुर में आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान की स्थापना हुई। इनके निर्देशन में अनेक मन्दिर और महनीय आश्रम भी बनते जा रहे हैं । सागर, मध्यप्रदेश में जनसेवा के निमित्त 'भाग्योदय तीर्थ' संज्ञक चिकित्सालय तो जबलपुर में 'भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान' और देश भर में गौ सेवा के निमित्त शताधिक गौशालाएँ भी स्थापित हुई हैं । अभी तक आपसे ८९ मुनि, १७२ आर्यिका, २० ऐलक, १४ क्षुल्लक एवं ३ क्षुल्लिकाएँ दीक्षा पाकर मोक्षमार्ग पर अग्रसर हुए हैं तथा सैकड़ों बाल ब्रह्मचारी युवकयुवतियाँ भी साधनारत हैं।
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इस प्रकार अनुवंश, परिवेश तथा महामनीषियों के सान्निध्य से इनका विकसित और विलोकनीय व्यक्तित्व अपने आचरणों में निरन्तर प्रतिफलित होता आ रहा है ।
खण्ड दो : जीवन दर्शन
'दर्शन' शब्द का जैन प्रस्थान में अर्थ है - श्रद्धान । 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कहा गया है :
“श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम्” ॥ ४ ॥
परमार्थभूत देव, शास्त्र और गुरु का त्रिविध मूढ़ताओं से रहित, आठ अंगों से सहित तथा आठ प्रकार के मदों से रहित श्रद्धान करना ही 'सम्यक् दर्शन' कहा जाता है । श्रमण प्रस्थान के अतिरिक्त ब्राह्मण प्रस्थान में 'दर्शन' का अर्थ मुख्य ज्ञान है। जैन प्रस्थान में ज्ञान 'दर्शन' से भिन्न है । 'दर्शन' साक्षात्कार है । साक्षात्कारात्मक ज्ञान है - जो दो प्रकार (ब्राह्मण दर्शन) का है - परम्परया साक्षात्कारात्मक तथा साक्षात् साक्षात्कारात्मक । पहला इन्द्रिय तथा मन सापेक्ष होता है और दूसरा दोनों से निरपेक्ष स्वयम् (आत्म) से स्वयम् का साक्षात्कार होता है । इसे साक्षात् अपरोक्षानुभूति कहते हैं। जैन प्रस्थान में प्रत्यक्ष ज्ञान इसी दूसरे प्रकार के इन्द्रिय-मन :- निरपेक्ष आत्मबल से होने वाला ज्ञान है । वहाँ परोक्ष और प्रत्यक्ष जैसे ज्ञान के दो भेद हैं। इनमें परोक्षभूत मति श्रुतज्ञान से भिन्न तथा इन्द्रिय व मन की सहायता बिना आत्मबल से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान भी अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञान रूप त्रिविध है । साक्षात् अपरोक्षानुभूति या
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