Book Title: Mukmati Mimansa Part 01
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 573
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 485 इस दम्पती से दस सन्तानें पैदा हुईं-जिनमें से चार तो अकाल में ही काल कवलित हो गईं। शेष छ: में चार पुत्र और दो पुत्रियाँ रह गए। सबसे बड़े पुत्र श्री महावीर प्रसाद हैं। इनका जन्म १९४३ में हुआ था । सदलगा के निकट शमनेवाड़ी ग्राम में पारिवारिक विरासत की रक्षा करते हुए सपरिवार ससम्मान अपना कुलोचित जीवनयापन कर रहे हैं। विद्याधर इन्हीं के अनुजन्मा हैं। इनकी दो अनुजाएँ हैं-शान्ता और स्वर्णा । इन अनुजाओं के अनन्तर दो भाई और आए-अनन्तनाथ और शान्तिनाथ । बड़े भाई महावीर को छोड़कर माता-पिता और अनुज-अनुजाएँ विधिवत् जैनसाधना की परमार्थ धारा में उतरते गए। क - पारिवारिक परिवेश पारिवारिक, सारस्वत तथा जैन धार्मिक परिवेश अनुवंशत: प्राप्त संस्कार परिवेश की अनुकूलता से विकसित होते हैं-विज्ञानान्तर्गत मनोविज्ञान की शाखा यह मानती है । वैसे, जैसा कि आत्मवाद मानता है ईश्वरत्व पर्यवसायिनी सारी सम्भावनाएँ मानव निसर्गत: लेकर आता है, पर परिवेश उसके विकास में सहायक होता है । यह मानने में किसी को कोई कठिनाई नहीं है। महापुरुषों के गर्भस्थ होने पर माता-पिता को मंगलसूचक स्वप्नावस्था में कुछ घटनाएँ घटित होती हैं। इनके साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ । गर्भस्थ शिशु की माता और पिता के साथ भी यह घटित हुआ। माता के स्वप्न में चक्र का आकर रुकना और दो ऋद्धिधारी मुनियों को आहार देना भावी शुभ घटना के सूचक थे। उसी रात पिता को भी स्वप्न आया कि वे एक खेत में खड़े हैं-जहाँ दहाड़ता हुआ एक सिंह आया और उन्हें निगल गया। ___ माता-पिता चूँकि तीर्थाटन के निमित्त प्राय: आते-जाते थे। एक बार शिशु विद्याधर (जिसे प्यार से पीलू, गिनी, मरी, तोता भी कहा जाता था) जो केवल डेढ़ वर्ष का था, साथ गया था। माता-पिता ने इनसे भी श्रवणबेलगोला (हासन, कर्नाटक) में विराजमान विश्वविश्रुत गोम्मटेश्वर भगवान् बाहुबली की पूजा-अर्चा कराई। भक्तिभाव से तो वे यों ही आपूरित थे, वहाँ एक घटित घटना से उसमें और वृद्धि हो गई। हुआ यह कि पूजा काल में अनवधानतावश पीलू सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ नीचे चला गया, पर ग्यारहवीं सीढ़ी पर सकुशल पड़ा रहा । माता-पिता सकुशल स्थिति में पाकर सन्तुष्ट हो गए। वे वहाँ से कारकल, मूडबिद्री, हैलिविड और मैसूर आदि स्थानों पर देव-दर्शन और मुनि-दर्शन करते हुए घर वापिस लौटे । निश्चय ही इस यात्रा से शिशु का स्वच्छ मानस संस्कारित और रंजित हुआ। बालक की चेतना भी आदर्श दिनचर्या देखकर प्रभावित हुई। बालक में बचपन से ही तितिक्षा और वेदना के सह सकने की क्षमता विभिन्न सन्दर्भो में बढ़ने लगी। कभी बिच्छू का डंक बर्दाश्त करना पड़ा तो कभी अन्यविध प्रतिकूल स्थितियों का दबाव। ख - सारस्वत परिवेश पाँच वर्ष की अवस्था होने पर पारिवारिक परिवेश के अतिरिक्त सारस्वत संस्थानों का परिवेश मिला । वहाँ पूर्व संस्कारवश ज्ञानसङ्क्रान्ति तेजी से होती गई। सहपाठियों से सौहार्द और सौमनस्य तथा गुरुजनों के प्रति श्रद्धा बराबर एकरस बनी रही। इसी क्रम में सारस्वत संस्थानों से हटकर आचार्यों के उपदेश और उनका सान्निध्य मिलता रहा । शेडवाल में आचार्य श्री शान्तिसागरजी के प्रवचन-श्रवण ने विद्याधर को और धर्मोन्मुख कर दिया। उन्हें भक्तामरस्तोत्र, मोक्षशास्त्र-सभी कण्ठस्थ थे। मुनि श्री महाबलजी महाराज का भी आदेश और आशीर्वचन मिला। एक तीसरे आचार्यप्रवर श्री देशभूषणजी थे जो सदलगा ग्राम में पधारकर उन दिनों शास्त्र प्रवचन रूप धर्मोपदेश देते थे। विद्याधर इस समय कन्नड़ भाषा के माध्यम से सातवीं कक्षा के छात्र थे। उसी समय पूँजीबन्धन संस्कार का आयोजन हुआ। बारह वर्ष की

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