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'मूकमाटी' : प्रज्ञा का महाकाव्य
प्रो. (डॉ.) रामकुमार चतुर्वेदी 'चंचल' मैंने 'मूकमाटी' को विहंगम दृष्टि से देखा है, लेकिन मेरी दृष्टि सामान्य मनुष्य की दृष्टि तो है ही, एक अध्यापक की दृष्टि, जो सबसे खतरनाक दृष्टि होती है, तथा कवि की दृष्टि से भी देखा, परखा है।
मैं जब विद्यार्थी था, तभी विद्यार्थी जीवन में माटी के ऊपर एक पुस्तक लिखी थी-'धूल का परिचय, जो उत्तरप्रदेश शासन से पुरस्कृत है । एक संयोग की ही बात है कि आचार्य श्री विद्यासागरजी के इस ग्रन्थ का नाम है 'मूकमाटी' । इसके बाद एक अन्य पुस्तक 'नई राह भी लिखी । इसमें सबसे लम्बी कविता 'धूल' है। मुझे आरम्भ से ही धूल से बड़ा प्रेम रहा है, बड़ा लगाव रहा है किन्तु मैं आचार्य नहीं हूँ, न ही दार्शनिक अपितु शुद्ध हृदयवादी कवि मात्र
धूल और माटी को जैसा देखता आया, उसे मैंने विद्यार्थी जीवन में यूं लिखा था :
"माटी से निर्मित हम सब हैं, माटी से निर्मित धरती है।
बल अथवा निर्बलता समझो, माटी, माटी पर मरती है ॥" मिट्टी से बने हुए शरीरों की ताकत भी मिट्टी है और उसकी दुर्बलता भी मिट्टी है । कब दुर्बलता ताकत बन जाती है और कब ताकत दुर्बलता बन जाती है, ये हम दुनिया के इतिहास को उठाकर, पलटकर देखें, परिस्थितियों के उत्थान-पतन को देखें तथा राष्ट्रों के उत्थान-पतन को देखें तो वह सारा नक्शा/नज़रिया स्पष्ट हो जाता है - युग के आदि से आज तक का । आज भी कई नक्शे डगमगाते दिख रहे हैं संसार के इस मानचित्र में।
पुस्तक की भूमिका में लक्ष्मीचन्द्रजी ने स्वयं कहा है कि इसे महाकाव्य के प्राचीन चौखटों, लक्षणों में बाँधना उपयुक्त नहीं है। हम लोगों के साथ एक खराबी है कि हम महाकाव्य की पुरानी मान्यताओं, परिपाटियों को ही अंगीकृत किए हुए हैं। महाकाव्य मानने, जानने के लिए क्रमश: काव्य के कथानक, पात्र, उनके चरित्र, नायक, नगर भ्रमण का वर्णन, नायिका इत्यादि रूप से सारी कसौटियाँ यदि लगाएँगे तो कहना पड़ता है कि निस्सन्देह 'मूकमाटी', जो प्रज्ञा का महाकाव्य है, शायद ही उस कसौटी या चौखटे में कहीं भी समाएगा। यदि इसे खण्डकाव्य कहने का प्रयास किया जाए तो खण्डकाव्य में जीवन का आंशिक चित्रण हुआ करता है, सम्पूर्ण चित्रण नहीं । वह समग्रता रूप जीवन को नहीं देखता अपितु जीवन की किसी एक कथा अथवा किसी एक पक्ष को लेता है। 'मूकमाटी' में माटी की प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की यात्रा है, अत: इसे खण्डकाव्य नहीं कहा जा सकता। 'माटी' का कौन-सा खण्ड हो सकता है ? जिसका कण ही ब्रह्मा है, उसका खण्ड के रूप में कौन दर्शन कर सकता है ? वह तो अखण्ड है । यह तो हमारी ही विश्लेषणकारी मति है जो उसको भी विखण्डित करके देखती है, अन्यथा धरती तो अखण्डित ही है। पुराने कवियों ने भी कहा है :
“सबै भूमि गोपाल की यामें अटक कहाँ।
जाकैमन में अटक है सो ही अटक रहा ॥" वर्तमान समय में कोई कहता है मेरी इतनी बीघा जमीन या ज़मींदारी अथवा राजाओं के राज्य चले गए, ज़मींदारियाँ नष्ट हो गईं अथवा ज़मींदार ही चले गए। दस-बीस एकड़ वाले भूमिपति बनते हैं। भूमिपति तो वे ही हैं जिसने सबको भूमि दी है। मेरी दृष्टि में 'मूकमाटी' भूमि का दर्शन है । आचार्यश्री ने माटी को नदी और समुद्र तट पर जाकर देखा है । तल का निर्माण माटी ही करती है। बड़े से बड़े गहरे समुद्र के तट का निर्माण धरती पर ही होता है। अत: ऐसे विस्तृत, विशाल समुद्र के तट पर खड़े होकर आचार्यश्री ने धरती का अवलोकन किया है । चूँकि आचार्यश्री साधुत्व रूप में हैं, अत: एक सिद्ध तथा श्रेष्ठ साधक होने के कारण मेरे ख्याल से सम्भव है उन्होंने माटी को आकाश से