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तत्त्व दर्शन से भरी-पूरी कविता को समेटे 'मूकमाटी'
कैलाश चन्द्र पन्त 'मूकमाटी' एक जैन मुनि की काव्य कृति है। एक मुनि और कविता ? - प्रश्न आन्दोलित करता है। लेकिन सहज ही किसी बात को स्थापना बना लेना या ख़ारिज कर देना उचित नहीं होगा। काव्य है तो उसे कविता की कसौटी से गुज़रना पड़ेगा । यह कह कर हम बच नहीं सकते कि आध्यात्मिक सूत्रों का उल्लेख एक मुनि के लिए स्वाभाविक है। 'मूकमाटी' काव्य है या अध्यात्म, यह तो तय करना ही होगा।
"लो!..इधर...!/अध-खुली कमलिनी/डूबते चाँद की चाँदनी को भी नहीं देखती/आँखें खोल कर। ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं, और वह भी..
स्त्री-पर्याय में-/अनहोनी-सी''घटना !" (पृ. २) प्रथम पाँच पंक्तियों में काव्य का माधुर्य है, पर अन्तिम पंक्तियों की सपाट बयानी एक उपदेशक की सपाट बयानी है । अभिव्यक्ति की यह शैली 'मूकमाटी' की काव्यात्मकता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। इसी प्रकार का एक अन्य उद्धरण भी प्रस्तुत करना समीचीन होगा :
"दूसरे दुःखित न हों/मुख पर यूंघट लाती हूँ/घुटन छुपाती-छुपाती/.."चूंट
पीती ही जा रही हूँ,/केवल कहने को/जीती ही आ रही हूँ।" (पृ. ५) कवि की यह अनुभूति कितनी मर्मस्पर्शी है। लेकिन विद्यासागरजी का मुनि शायद सचेत हो उठता है और आगे ही वह कह देते हैं :
"इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की/च्युति कब होगी ?" (पृ.५) ऐसा लगता है कि कवि और मुनि, जो विद्यासागरजी में एकाकार हुए हैं, उनमें परस्पर द्वन्द्व है । वे शायद यह मान कर ही रचना कर रहे हैं कि उनका उद्देश्य जैन दर्शन के तत्त्वों को जन भाषा में सामान्य जन तक पहुँचाना है। मुनिश्री स्वयं स्वीकार करते हैं :
"जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम
सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड'!" (पृ. १११) यह स्थापना साहित्य के उद्देश्य पर एक पुरानी बहस को नए सिरे से उठाती है । सत्य, शिव और सुन्दर की अवधारणा पर वर्षों बहस चली है जो अभी समाप्त नहीं हुई है। हमारे काव्य शास्त्र में भी रसों की श्रेष्ठता पर व्याख्याएँ हुई हैं और करुण रस के पक्ष में निष्कर्ष निकाले गए हैं। आज की शब्दावली में संवेदना जिसे कहा जाता है, वह करुणा का ही निखार है। लेकिन इन सब परम्पराओं से विद्रोह कर जो कविता रची गई, उसे शब्दों का झुण्ड मानकर नकारा तो नहीं जा सकता। जिसे सार-शून्यता कहा जा रहा है, उसमें भी कुछ सार तो होता ही है, क्योंकि शून्य अपने आप में कुछ नहीं होता। फिर यह भी सही है कि जीवन का सार क्या है, इसे मानने और समझने की स्वतन्त्रता प्रत्येक रचनाकार