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'मूकमाटी' : अन्तश्चेतना का महाकाव्य
नवभारत (दैनिक), नागपुर (महाराष्ट्र) धर्म, दर्शन, न्याय को अपने गर्भ में समाहित किए हुए 'मूकमाटी' अध्यात्म का एक महाकाव्य है। अध्यात्म के रहस्यमयसार का आज की बोलचाल की भाषा में सरलीकरण करके मुक्त छन्द में इसकी रचना की गई है। हिन्दी साहित्य के लिए यह महाकाव्य सर्वकल्याणोन्मुखी, चिरस्थाई प्रकाश स्तम्भ होगा।
इसके सृजक स्वयं कविरूपी कुम्भकार हैं जिन्होंने चिन्तन व मनन को शब्दों का रूप देकर काव्य की रचना की है। इसमें शब्द का अर्थ, अलंकारों की अलौकिक छटा, शब्दों, मुहावरों, सूक्तियों, उपमाओं, रसों व शब्दों की तोड़फोड़ का अनुपमेय प्रयोग कर रसराज के रूप में शान्त रस' की स्थापना की है।
आचार्यश्री अध्यात्म जीवन के ऐसे शिल्पकार हैं जिन्होंने अपनी यात्रा पूर्ण करने के लिए जिनागम के विशाल वैभव को अपनी प्रज्ञारूपी पैनी छैनी से, आगम की अगम गहराइयों में छिपी रहस्यपूर्ण घटनाओं को उद्घाटित कर माटी के माध्यम से मूल से चूल तक अर्थात् अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं सिद्धलोक तक की स्थिति का सांगोपांग वर्णन किया है । मैं तो कह सकता हूँ कि आज का भौतिकवादी मानव-जिसे यन्त्रों का सम्राट् कह दें - वह वाहन यात्री एवं थाली पात्री होकर के चारों धाम ही क्या, सारे भूमण्डल से गगन मण्डल तक की यात्रा बहुत ही सुखद, सरगम संगीत, आनन्द के साथ कर सकता है, किन्तु महामना विद्यासागरजी की कृति पर लेखनी चलाना उससे भी कई गुना दूभर, असाध्य कार्य है। कृतिकार ने अपने भावों को यन्त्र-सम-संयत, नाप-तौल कर भावों के माध्यम से अन्तर के उद्गार व्यक्त कर कहा है कि हिंसक की हिंसा करना ही अहिंसा का साम्राज्य दशों दिशाओं में फैलाना है । अहिंसक की हिंसा करना हिंसा का ताण्डव नृत्य कर, हिंसा की क्रान्ति कर शान्ति को तिलांजलि देना बतलाया है।
कृति में नैतिकता का प्रबल भाव, सत्य का प्रतिशोध, स्वार्थ रहित हार्दिक भावना व उज्ज्वल उद्देश्य अत्यधिक प्रवहमान है । यदि कोई अपना अभीष्ट उद्देश्य सिद्ध करना चाहे तो 'मूकमाटी' को पढ़कर सिद्ध कर सकता है। काव्य में केवल जैन सिद्धान्तों का ही समावेश नहीं किन्तु सर्वदर्शन के साथ भारतीय सिद्धान्तों, विचारों का दोहन भी विद्यमान है । रचयिता नि:सन्देह बहुश्रुतविज्ञ, ऐतिहासिक, राजनैतिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्णतया सुपरिचित है । कृति 'अहिंसा परमो धर्मः, 'सत्यमेव जयते, 'यतो धर्मः ततो जयः' से परिपूर्ण है।
___मैं तो कह सकता हूँ कि कृति का प्रत्येक शब्द मौन, गूंगा, प्रशान्त एवं स्तब्ध है। तुम यदि समझना चाहते हो युग बोध, अध्यात्म, विज्ञान, सिद्धान्तों व अलंकारों की अलौकिक ही नहीं - पारलौकिक छटा को तो दृश्यांकित कर पढ़ो, समझो, मनन कर मार्मिक, मंगलदायी, गहनतम गहराई में डूबो नहीं, अपितु डुबकी लगाकर महामना की अन्त:चेतना को स्पर्श करने का प्रयत्न करो। ये गूंगे की मिठाई है।
- शान्त भाव से दार्शनिक वाङ्मय का परिशीलन करने पर विदित होता है कि जैन दर्शन ने ईश्वर को माना तो है किन्तु ईश्वर कर्तृत्ववाद को स्वीकार नहीं किया है। किसी विद्वान् ने कहा है कि यदि एक ईश्वर मानने के कारण किसी दर्शन को आस्तिक संज्ञा दी जा सकती है तो अनन्त आत्माओं के लिए मुक्ति का द्वार उन्मुक्त करने वाले जैन दर्शन में अनन्तगुणित आस्तिकता स्वीकार करना न्याय संगत होगा।
कृति का विषय इतना निर्मल और प्रकाशपूर्ण है कि इसके आलोक में हम अपना जीवन उज्ज्वल, दिव्य और अलौकिक बना सकते हैं। कहावत प्रसिद्ध है कि “जो कम्मे सूरा, सो धम्मे सूरा" अर्थात् जो कर्म पुरुषार्थ में शूर, पराक्रमी होता है वह धर्म पुरुषार्थ में भी शूर ही नहीं, पराक्रमी एवं मशहूर भी होता है । सन्त स्वयं ही आदर्शों की प्रतिमूर्ति होते हुए भी कुम्भकार रूपी गुरु के चरणों में समर्पित हो जाता है। ये सन्त पद दलित, पाप पंक से लिप्त, निरीह, शुष्क, अजीव-निर्जीव वस्तु के लिए भी अजीब प्रकार से सजीव-सम सम्मानित कर, काव्य का विषय बनाकर, मूक वेदनाएँ, संवेदनाएँ, मौन प्रलाप समझ, चेतना-सम मन्द-मधुर मुस्कान देकर, षट्रस व्यंजन-सम प्रफुल्लित कर, नियामक मार्गदर्शकों के लिए मनोभावनाओं से ओतप्रोत कर जीवन यात्रा को सार्थकता के सोपान तक ले जाने हेत