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मूकमाटी-मीमांसा :: 431
सब ने आत्मसात् कर/अग्नि पी डाली बस !/या, इसे यूँ कहेंअग्नि को जन्म देकर अग्नि में लीन में लीन हुईं वे। प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है/उन्हीं भावों से मिटती भी वह, वहीं समाहित होती है ।/यह भावों का मिलन-मिटन
सहज स्वाश्रित है/और/अनादि-अनिधन..!" (पृ. २८२-२८३) शिल्पी का यह आत्म-रहस्य सेवा, समर्पण, करुणा, साधना आदि के माध्यम से उदात्तीकृत होकर जिस अन्तर्मुखी दृढभाव को उन्मीलित करता है, वह मानवीय चिति एवं अध्यात्म की साधना का चरम रहस्य है । आचार्यश्री के अनुसार स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है जो मौन होकर भी वर्जनाओं से रहित, मिथ्याभाषों से बाहर आनन्द का अविरल स्रोत होता है । इसके विपरीत दर्शन संकल्प-विकल्प से परिभाषित विचाराभास है, जिसके गर्जन-तर्जन में अस्तिनास्ति के स्वर मुखरित होते हैं।
धर्म की देहरी पर आत्मविकास से पल्लवित, पुष्पित राग-अनुराग की अक्षय आभा में अग्नि का ताप रससिक्त होकर घट का सुभग शृंगार बन जाता है । घट अक्षय और अखण्ड सौन्दर्य से सज्जित हो शुभ-संकल्प का प्रतीक बन कर शिल्पी की साधना को मूर्त करता है । उसके अंग-प्रत्यंग से प्रेम का, सत् का, साधना का सरस राग मुखरित होता है । इसीलिए तो मंगल घट का दर्शन करते ही नर-नारी खुशी से झूम कर नाचने लगते हैं।
"बहिरंग हो या अन्तरंग/कुम्भ के अंग-अंग से संगीत की तरंग निकल रही है,/और
भूमण्डल और नभमण्डल ये/उस गीत में तैर रहे हैं।" (पृ. २९९) . “यह सब शिल्पी का शिल्प है,/अनल्प श्रम, दृढ़ संकल्प
सत्-साधना-संस्कार का फल ।” (पृ. ३०५) 'मूकमाटी' में साधु के आहार-दान की प्रक्रिया से विन्यस्त धार्मिक अनुष्ठान एवं सेठ की आस्था तथा समर्पण का भी विस्तृत वर्णन मिलता है । इसी अध्याय में मंगल घट के विविध मनोरम रूपों का उल्लेख है जो मन्त्रों से अभिमन्त्रित और तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से पोषित हैं।
. चतुर्थ खण्ड जैन धर्म में मान्य भक्ति, तप, ध्यान, सामायिक, समाधि तथा ज्ञान का विश्लेषण है। जैन भक्ति के बारह रूपों - सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, आचार्य भक्ति, पंच गुरु भक्ति, तीर्थंकर भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, निर्वाण भक्ति, नन्दीश्वर भक्ति और चैत्य भक्ति का भी संक्षेप में निरूपण है।
आचार्यश्री ने मनुष्य के जीवन को एक द्रष्टा की तरह देखा है। द्रष्टा के लिए सम्यक् दृष्टि अनिवार्य होती है। उसका अन्तर और बाह्य परम पवित्र होता है। राग-द्वेष से मुक्त । अभय । साधना में लीन कविवर ने 'मूकमाटी' के माध्यम से प्रेम और करुणा से संश्लिष्ट जिस रागात्मक चित्र का विस्तार दिखाया है, उसमें मानवीय पीड़ा और उसकी समग्र चेतना का भावबोध है । जिसका मूल स्वर 'जन-गण-मन मंगलदायक हो' के रूप में पूरे काव्य में गूंजता है।
"कुम्भ के मुख से निकल रही हैं/मंगल-कामना की पंक्तियाँ : “यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सब के सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों