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मूकमाटी-मीमांसा :: 445 जब कभी क्षुधा से पीड़ित हो/खाद्य नहीं मिलने से । मल पर भी मुँह मारता है वह,/और/जब मल भी नहीं मिलता "तो अपनी सन्तान को ही खा जाता है,/किन्तु, सुनो !/भूख, मिटाने हेतु सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता/न ही अपने
सद्यःजात शिशु का भक्षण"!" (पृ. १७१-१७२) आज परमाणु आयुध बनाने वाली शक्तियाँ अपनी ही सन्तानों का भक्षण करने का 'श्वान चरित्र' ही मुखर कर रही हैं। मनुष्य के मन में स्नेह और शील गुण तो आज रहा ही नहीं। इसी सन्त्रास को अभिव्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने 'शील पाहुड़' में कहा :
_ “सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्ययं माणुसं जम्म" ॥१५॥ ___ महाकाव्य का खण्ड दो शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में जहाँ शब्द लालित्य, अभिनव शब्द विन्यास तथा भावार्थ-पर्याय का सुन्दरतम, मनोरम कथ्य है, वहीं प्रकृति और प्रेम का सहज सम्बन्ध स्थापित करते हुए उसे वह मोक्ष तक पहुँचा देता है । कवि घोषणा करता है :
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा! पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।/और/अन्यत्र रमना ही
भ्रमना है/मोह है, संसार है !" (पृ. ९३) आत्मा का स्वभाव तो प्रेम है किन्तु इसका शुभ-अशुभ भाव में परिणमन भी हो जाता है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा 'प्रवचनसार' में कहा गया है :
"जीवो परिणमदि जदा, सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसन्भावो" ॥९॥ ग्रन्थ का चतुर्थ खण्ड ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में कवि तुच्छ लकड़ी के माध्यम से बहुत बड़ी बात कह जाता है :
"लड़खड़ाती लकड़ी की रसना/रुकती-रुकती फिर कहती हैनिर्बल-जनों को सताने से नहीं,/बल-संबल दे बचाने से ही
बलवानों का बल सार्थक होता है।” (पृ. २७२) लेकिन डूबते को बचाना तभी सम्भव है जब बचाने वाले के साथ डूबने वाला भी बचने का प्रयास करे । अतः आगे कहा गया:
"नीचे से निर्बल को ऊपर उठाते समय/उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठानेवाले का दोष नहीं,/उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है।"
(पृ. २७२-२७३)