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'मूकमाटी' : अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला महान् ग्रन्थ
मानव मुनि पूज्य आध्यात्मिक योगिराज आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा रचित महाकाव्य 'मूकमाटी' को सन्तकवि ने चार खण्डों में विभक्त किया है-खण्ड प्रथम-संकर नहीं : वर्ण-लाभ'; खण्ड द्वितीय-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं; खण्ड तृतीय-'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा खण्ड चतुर्थ-‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'।
४८८ पृष्ठीय यह ग्रन्थ मानव समाज के लिए, जो विचारक व चिन्तनशील हैं, आत्म तत्त्व को गहराई से समझने की जिन्हें जिज्ञासा है, उनके लिए 'मूकमाटी' महाकाव्य के एक-एक खण्ड के एक-एक शब्द आत्मबोध देने वाले हैं। संक्षिप्त में लिखा जाए तो 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अर्थात् अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले इस महान् ग्रन्थ को ग्रन्थ कहूँ या आत्मसार का तत्त्व-दर्शन कहूँ !
चारों खण्डों का यदि मानव - जो ज्ञानी है, ध्यानी है, आत्म चिन्तक है- गहराई से, शान्त चित्त से, एकाग्रता के साथ अध्ययन करते हुए शब्दों पर चिन्तन करे तो पुरुषार्थ के द्वारा स्वयं जीवन का कुम्भकार, भाग्य विधाता बन सकता है।
कुम्भकार ने तो मिट्टी को खोदकर बड़ी मेहनत के साथ कच्चे घट बनाकर उन्हें तपाया, तब जाकर वो वास्तविकता का रूप बना । उसी प्रकार जीवन को भी तपाना होगा त्याग, संयम, साधना द्वारा, तब ही तो वीतरागी अपने पुरुषार्थ से अर्हन्तदेव बन सकता है।
_ 'मूकमाटी' (महाकाव्य) के चारों खण्डों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विवेचन किया जाए, लिखा जाए तो एक नया ग्रन्थ समीक्षा का हो सकता है। सार तत्त्व का अध्ययन सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि से किया जाए तो ऐसा महसूस होता है कि सागर को 'गागर' में समा लिया । इसे धर्म दर्शन कहें या जैन तत्त्व दर्शन कहा जाए, पर वास्तविकता में यह महाकाव्यात्मक रचना, आत्मदर्शन की ओर ले जाने की प्रेरणा देती है।
महाकाव्य के चारों खण्डों में विभिन्न पहलुओं के माध्यम से बोध दिया है। प्रथम खण्ड का सार तत्त्व है-'दयाविसुद्धो धम्मो'- यानी दया ही विशुद्ध धर्म है। दूसरे खण्ड का सार तत्त्व यह है कि यदि जीवन के समय का अपव्यय करते हैं तो क्या भविष्य उससे उज्ज्वल दिखाई देगा ? अन्त में मृत्यु हमें विकराल गाल में बिना चबाए साबुत ही निगलना चाहती है अर्थात् मृत्यु हमें अन्त में निगल जाएगी।
तीसरे खण्ड का महत्त्वपूर्ण सार तत्त्व यह है कि साधक की अन्तर्दृष्टि में जब यह भाव जागृत हो जाएगा कि किसी प्रकार से किंचित् मात्र भी भेद नहीं रहे, तब यात्रा को लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकेगा। यदि साधक के मन में किसी भी प्रकार से भेद रह जाता है तो यात्रा पूर्ण नहीं होगी। यात्रा बाह्य नहीं, अन्तर्दृष्टि से सफल होगी।
चौथे खण्ड का सार - जिसे कहा जाए - दूध से दही एवं दही से मक्खन निकाला जाना है, उसे तपाने पर घी प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार से ही कर्मों के बन्धनों से मुक्त होकर कर्मों की निर्जरा/क्षय करके निर्मल हो जाना है - यही है 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख'। उसी प्रकार बन्धन रूप तन-मन और वचन का आमूल मिट जाना ही मोक्ष है। जिसका मन मन्दिर निर्मल, पवित्र हो जाता है, राग-द्वेष से रहित हो जाता है, उसे ही वीतरागी कहिए या मोक्ष पद के योग्य कहिए।
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