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मूकमाटी-मीमांसा :: 443
आपने नए-नए अर्थ भरने का सार्थक प्रयत्न किया है, यथा :
“अपराधी नहीं बनो/अपरा 'धी' बनो,/ पराधी' नहीं
पराधीन नहीं/परन्तु/अपराधीन बनो !" (पृ. ४७७) यहाँ 'अपराधी' शब्द के विविध विग्रहों से अनेक और सार्थक अर्थों की व्यंजना हुई है, जिससे आपका यह कर्तृत्व गौरव मण्डित हो उठा है।
प्रकृति के रम्य चित्रों की कमी भी इस कृति में नहीं है। एक स्थल पर बाल भानु की भास्वर आभा का चित्रण करते हुए आप उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह आभा निरन्तर उठती चंचल लहरों में उलझती हुई ऐसी लगती है जैसे वह गुलाबी साड़ी पहने मदवती अबला-सी स्नान करती-करती लज्जावश सकुचा रही है। इसी के आगे वे लिखते हैं कि तट के झाग में अरुण की आभा का मिश्रण ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे तट स्वयं अपने करों में गुलाब का हार लेकर स्वागत में खड़ा हुआ है।
इस प्रकार आधुनिक युग के हिन्दी महाकाव्यों में 'कामायनी' और 'लोकायतन' की श्रेणी में 'मूकमाटी' लोक मंगल चेतना का एक अग्रिम सोपान है । 'कामायनी' में मानवता के विकास की कथा है तो लोकायतन' में चेतना के आरोहण-अवरोहण का स्वर्गिक दृश्य और 'मूकमाटी' इन दोनों को सुदृढ़ आश्रय प्रदान करती है । वह लोक चेतना के समाजीकरण का महाकाव्य है । महावीर स्वामी की वाणी और जैन धर्म-दर्शन का जो मूल तत्त्व है, वह सब 'मूकमाटी' में मुखरित होकर हमारे समक्ष आता है । इस तरह यह महाकाव्य गत ढाई हजार वर्षों की भारतीय धर्म-दर्शन- संस्कृति के श्रेष्ठ मनीषियों का माखन तुल्य है । वह एक ऐसी मूक पीठिका है जिस पर भावी संस्कृति की नींव रखी जानी है। यह एक ऐसी कति है जिसे आधार बनाकर अब हिन्दी के आचार्यों को महाकाव्य के परम्परागत तत्त्वों से ऊपर उठकर उसके नए आयामों को गढ़ना होगा। इस तरह 'मूकमाटी' का अन्वेषण और मूल्यांकन नए साहित्यिक निकषों की माँग करता है । इसमें कवि का कथाहीन सांस्कृतिक रहस्यात्मक परिवेश उसे महाकवि की ऊँचाइयों तक ले गया है। यह सहज, अनुभूत, आत्मिक उद्गारों की एक अनवरत और अविराम अभिव्यक्ति है जिसमें गद्य-पद्य की विभाजक रेखाएँ भी समरस होकर एक प्रवाहित सहज छन्द की संरचना करती हैं । यह महाकाव्य एक साधक-चिन्तक कवि का समग्र जीवन मूल्य होते हुए भी युगीन मानव जीवन का भाष्य है, उसका पथ, पाथेय और प्राप्तव्य भी है । वह कवि की सृजनशील प्रतिभा का आदिम सर्ग, उपसर्ग, विसर्ग और वर्गातीत अपवर्ग है।
___कवि ने अपने इस ग्रन्थ का समापन करते हुए जो अन्तिम बात अपने सम्बन्ध में कही है, वही बात इसके मूल्यांकन के सन्दर्भ में भी सच है :
"क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ वहाँ आकर देखो मुझे,/तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान क्योंकि/ऊपर से नीचे देखने से/चक्कर आता है
और/नीचे से ऊपर का अनुमान/लगभग गलत निकलता है।" (पृ. ४८७-४८८) अत: 'मूकमाटी' का सम्यक् मूल्यांकन कोई मुखर शिल्पी ही कर सकता है और वह भी मंज़िल पर पहुँचने के बाद, मार्ग में नहीं।