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'मूकमाटी' : आत्मिक ऊर्ध्वारोहण की महागाथा
डॉ. गणेश खरे 'मूकमाटी' पर मेरे द्वारा कुछ कहा जाना सागर-मन्थन का असम्भव प्रयास करना है। सागर तो उपलब्ध है पर वह देव सामर्थ्य और अलौकिक साधन कहाँ से लाऊँ! अत: उसमें एक डुबकी लगाकर ही उसे प्रणाम कर रहा हूँ। माटी तो निर्गुण है, निराकार है, मूक होने के कारण यह निर्वाक् भी है। अत: उसका स्पर्श भी कठिन है। वह केवल अनुभूति का विषय है, आचरण की मर्यादा है । वह देव मन्दिर की देहली है जो सांसारिक सीमाएँ लाँघकर आध्यात्मिक संसार में प्रवेश की अनुमति देती है। मैं तो मात्र इतना कहूँगा कि 'मूकमाटी' की यह अध्ययन यात्रा मेरे लिए अपने आप में बाँधे रही और आचार्यश्री के ही शब्दों में सचमुच मैने मंज़िल पर पहुँचने के बाद विश्राम किया है । यह मानवीय शरीर या जीव ही माटी है। यह स्वत: कुछ भी कहने में असमर्थ है, अत: मूक है पर इसकी चिन्तन-मनन, श्रोत और क्रियात्मक शक्तियाँ तो सक्रिय-संवेदनमय हैं, अत: वे शिल्पी के हर शब्द और संकेत को ग्रहण कर उन्हें आचरण में रूपान्तरण कर देती हैं।
___कुम्भकार के हाथों में पड़कर यह मूकमाटी पहले साफ़ की गई है, फिर पानी का संस्पर्श पाकर वह कुम्भ के रूप में परिवर्तित हुई है, फिर उसे तपस्या की पावन अग्नि में पकाया गया है और अन्त में वह मंगल कलश का रूप धारण कर नवागत संस्कृति का स्वागत करती है। यह वस्तुत: जीव की एक आत्मिक ऊर्ध्वारोहण की महागाथा है । मैं तो मात्र इस महायात्रा का एक छोटा-सा प्रेक्षक रहा हूँ, प्रतीति और संवेदना से शून्य, निर्वाक् और विस्मय-विमुग्ध ।
यह जड़-चेतनमय सारी सृष्टि मृण्मय है। जो कुछ मिट्टी नहीं है, वह वायवीय है, शून्य है, निरंक है पर उसका आधार भी यही मिट्टी है । यह मिट्टी सृष्टि-रचयिता शिल्पी की लीला का भी सबसे बड़ा साधन है। वह नाना रूपों में इसको ढालता रहता है और यह मिट्टी नव-नव रूप धारण कर सृष्टि के विकास की प्रक्रिया को न केवल सक्रिय रखती है वरन् उसे शाश्वत और चिर नवीन भी बनाए रखती है। यह मिट्टी कभी मिटती नहीं। विभिन्न तत्त्वों के योग से यह रचनाशीला जीवन्त और जागृत होकर ऋषियों-महर्षियों की संचेतना बनकर मानवता की श्रीवृद्धि करती है। जनता के दु:ख-दारिद्रय को मिटाकर उन्हें एक हरा-भरा संसार प्रदान करती है। यह सबको आश्रय देने वाली जग जननी है, माँ है । अपने बच्चों के लिए इसका अपार स्नेह प्रकृति के फूलों, मन्द-मन्थर हवाओं, सूर्य की किरणों, जलतरंगों और अग्नि की ऊष्मा के माध्यम से सतत प्रवाहित होता रहता है । इसकी प्रकृति ही दानशीला है । यह देती है मात्र, लेने की कल्पना ही इसके मानस में नहीं उठती । इस दृष्टि से यह पूर्णत: निर्विकार है, प्रांजल और पावन है। कोई भौतिक विकार इसे स्पर्श नहीं कर पाता । यह विकारातीत है। यह निर्जन में भी अपनी मस्ती में लीन रहती है और जनसंकुलता में भी; हिमालय की तुंग ऊँचाइयों पर भी यह चिर प्रसन्न और प्रशान्त है और सागर की अतल गहराइयों में भी सन्तृप्त और निराकुल है । इसकी महिमा, अणिमा और गरिमा को आज तक कोई समझ नहीं सका । वस्तुत: इसे ही वेदविदों ने नेति-नेति कहा है। यह ही अप्रत्यक्ष शिल्पी का अभिव्यक्त रूप है। इसी के कण-कण के स्पन्दन में वह गुरुतर प्रकट होता है । कुछ लोगों ने इसे माया कहा है अर्थात् जिसका अस्तित्व नहीं । जो है ही नहीं, वही माया है । माया सांसारिक विकारों की जननी है पर प्रकृति तो संसार की जननी है। प्रकृति और माया में द्वैताद्वैत सम्बन्ध है । जल और लहरें पृथक् होते हुए भी एक हैं। जल स्थिर है, लहरें चंचल । लहरों का उद्वेलन ही अशान्ति का कारक है और लहरों का सम रूप ही जल की वास्तविक प्रकृति है। निर्मल, शीतल, शान्त सरोवर में ही ऋषियों का हंसा केलि करता है। जल है, इसलिए लहरे हैं । यह है मिट्टी का अनेकान्तिक दृष्टिकोण । एक के अस्तित्व पर दूसरे का अस्तित्व निर्भर तो है पर ये अन्योन्याश्रित नहीं हैं। मिट्टी है, इसलिए सुख-दुख, हर्ष-शोक, रोग-भोग सब का अस्तित्व है पर मिट्टी इन सब की कारक नहीं है, जननी नहीं है । उसकी गोद में तो गुलाब और बबूल, कमल और करील दोनों को आश्रय मिलता है।