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भारतीय साहित्य की अनूठी उपलब्धि : 'मूकमाटी'
डॉ. (श्रीमती) किरण बाला अरोड़ा साहित्य एवं समाज में जिस गाम्भीर्य का लोप होता जा रहा है, उसके दर्शन पुन: कराने वाला ये काव्य वास्तव में साहित्य की एक अनूठी उपलब्धि है। प्राचीन काल से परोपकार, उदारता एवं उदात्तता भारतीय साहित्य के मेरुदण्ड रहे हैं। उसी का अंकुरण काव्य में बड़े सुन्दर रूप से हुआ है। आधुनिक मानव कुण्ठा, द्वन्द्व, अकेलेपन आदि परिस्थितियों से जूझता हुआ टूटता चला जाता है, वो इसलिए कि उसकी दृष्टि वस्तुत: समष्टि की ओर नहीं, केवल अपनी ओर केन्द्रित रहती है। 'मूकमाटी' के पात्र इसी संकीर्ण दायरे को निरन्तर तोड़ते नज़र आते हैं।
जीवन तो जूझना है, जूझते हुए सफल होना है। टूटना तो मृत्यु है। ऐसा जीवन यहाँ किसका है ? यहाँ किसने कभी कोई कष्ट नहीं झेले ? सोना जितना तपाया जाता है, उतना खरा बनता जाता है। इस सफर का रास्ता समतल कभी नहीं होता है। कष्टों से छुटकारा कुछ हद तक अगर मिल भी जाए पर चरित्र की उदात्तता फिर कहाँ से आ पाएगी। इसी जूझने का प्रतीक है 'मूकमाटी' का । माटी से कुम्भ बनना तथा सेवायुक्त होकर सफल होना, यही शिक्षा माटी अपनी ममतामयी माँ से पाती है। कितनी उत्कण्ठा है माटी में कुम्भकार के हाथों से कुम्भ बन तपने की, सफल होने की, पूर्ण होने की । यही जीवात्मा की भी तो सतत पुकार है।
"मैं निर्दोष नहीं हूँ/दोषों का कोष बना हुआ हूँ/मुझ में वे दोष भरे हुए हैं।
जब तक उनका जलना नहीं होगा/मैं निर्दोष नहीं हो सकता।"(पृ. २७७) सामान्य मानव की ये कमजोरी है कि मानव आनन्द की प्राप्ति तो चाहता है किन्तु आनन्द प्राप्ति के लिए किए जाने वाले त्याग से मुख मोड़ता है । माटी ऐसा नहीं करती। माटी अपनी मूक वाणी से हमें ये शिक्षा दे जाती है :
0 "बिना तप के जलत्व का, अज्ञान का,/विलय हो नहीं सकता।" (पृ. १७६)
0 "मर, हम 'मरहम' बनें!" (पृ. १७५) यहाँ 'हम' का मरना ही अहंकार का मरना है, स्वार्थ का मरना है । अहंकार जो 'अहं' का प्रखर स्वर' है, उसका विकार ही अहंकार है, जो पतन का मूल है। धरती धरणी है, माटी है, जो सब कुछ धैर्य से धारण करती है। उसी प्रकार साधक भी जीवन के उतार-चढ़ावों को धैर्य से धारण करता है और लक्ष्य की प्राप्ति कर पाता है। 'गुरु' एकाग्रता से शिष्य की प्रगति में दत्तचित होता है :
"किसी कारणवश/विवश होकर जाना पड़ा बाहर/कुम्भकार को । पर, प्रवास पर/तन ही गया है उसका,/मन यहीं पर
बार-बार लौट आता आवास पर !" (पृ. १९८) कुम्भ सतत साधना का प्रतीक है। जीवन में सफल होने के लिए साधना आवश्यक है । जो ये तथ्य पहचान लेता है वह जीवन को सफलतापूर्वक जीने का मन्त्र पा जाता है।
"परीषह-उपसर्ग के बिना कभी/स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि
न हुई, न होगी/त्रैकालिक सत्य है यह !" (पृ. २६६) जीवन केवल अपने ही स्वार्थमय भोग के लिए नहीं हैं- “परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्”- वेद