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432 :: मूकमाटी-मीमांसा
नाशा की आशा मिटे / आमूल महक उठें / बस ।” (पृ. ४७८ )
नए युग की चुनौतियों का सामना करने हेतु आचार्यश्री का कवित्व अपनी पूरी दिव्यता के साथ पाठक में गहरे बोध का संचार करता है। 'मूकमाटी' की कविता में लोकजीवन से जुड़े विविध प्रसंग और लोकभाषा के शब्दों एवं बिम्बों के बीच से उभरती, कौंधती प्रेम और सौन्दर्य की अनुपम छवि गहरे आकर्षण से मन को निहाल कर देती है।
रचना संसार का द्वार खुलते ही धरती को आत्मीय गन्ध का संचार और प्रकृति का बहुआयामी रूप वैभव प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में मनुष्य की बारीक से बारीक सात्त्विक संवेदना की अभिव्यक्ति को जीवन्त बनाता है ।
कविता में वर्णित सौन्दर्य और प्रेम की सूक्ष्मता और उसकी अवधारणा मध्यकालीन सन्तों से आचार्यश्री की भाव - भाषा को जोड़ती है।
आचार्यश्री की रचनाओं में कहीं गलदश्रु भावुकता नहीं है। उनकी कविता में भाव और बुद्धि दोनों की गहनता है । इसीलिए 'मूकमाटी' की कविता की परिष्कृति इस सीमा तक पहुँची है कि पूरी रचना अध्यात्म और दर्शन का एक नया अध्याय बन जाती है। प्रेम की बहुआयामी प्रस्तुति में अनेकान्त, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और धर्म का युगपत् सहावस्थान आदि साधना की पूरी व्याप्ति के साथ प्रकट होकर पाठक पर गहरा असर डालते हैं।
'मूकमाटी' मानवीय भाव - बोध की अप्रतिम काव्य - कृति है । इसकी भाषा की व्यंजनाओं में पुराण और किंवदन्तियों का समावेश है। अभिव्यक्ति कौशल में संस्कृत के तत्सम तद्भव और आंचलिक बोलियों के शब्द भी पाए जाते हैं । अलंकारों का स्वाभाविक सौन्दर्य लेखन को समृद्ध बनाता है।
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की काव्य- कृति 'मूकमाटी' में प्रबन्धकार की प्रतिभा का व्यापक स्वरूप दृष्टिगत होता है।
कमाटी
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