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424 :: मूकमाटी-मीमांसा
वस्तुवत्ता ही श्रम, साधना, प्रेम तथा करुणा के गहरे संस्कार से ढल कर मंगल घट की संज्ञा पाती है। शिल्पी घट को अपनी निजता, श्रम-साधना एवं सांस्कृतिक चेतना से सम्पन्न कर भ्रांतियों से मुक्त करता है । घट सर्वमय-भाव से अपने प्रयोजन का विस्तार दूसरों में भी पाता है । यहाँ घट साधक की तपश्चर्या का मूर्तरूप है । साधक के आचारविचार और क्षमता को शिल्पी अपने विराट् चिन्तन से अभिनव ज्ञान प्रदान करता है । घट में सत्त्व संशुद्धि और अभयभाव की प्रतिष्ठा कर उसे दृढ़ से दृढ़तर बनाता है । घट विधि रूप जीवन प्राप्त कर सर्वथा नित नव- ज्ञान का संवाहक जाता है। आचार्यश्री का कथन है
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"लो, अब शिल्पी / कुंकुम - सम मृदु माटी में / मात्रानुकूल मिलाता है छना निर्मल-जल // नूतन प्राण फूँक रहा है / माटी के जीवन में करुणामय कण-कण में, /... माटी के प्राणों में जा, पानी ने वहाँ / नव-प्राण पाया है, / ज्ञानी के पदों में जा अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है।" (पृ. ८९)
जैनाचार्य देवनन्दी पूज्यपाद स्वामी ने 'भक्ति' की व्याख्या करते हुए 'सर्वार्थसिद्धि' (६/२४/६५६) ग्रन्थ में लिखा है :‘“अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।” अर्थात् अर्हत्, आचार्य, बहुश्रुत एवं आगम के प्रति भावविशुद्धि पूर्ण अनुराग 'भक्ति' है । यहाँ भक्ति का अर्थ विह्वलता एवं आस्तिकता नहीं अपितु ज्ञान की सम्पन्नता, आचार की शालीनता और जीवन में शुचिता है। मन की यह शुद्धता आराधना का संकल्प है, भक्ति का सघन आयाम है।
'मूकमाटी' में अन्तस्साधना की टेक से मुखरित प्रेम कई प्रकार प्रकट हुआ है। आत्मनिष्ठा की मोदमयी संवेदना तात्कालिक सन्दर्भों का स्पर्श करती हुई जानी-पहचानी दुनिया को चित्रित करती है। आचार्यश्री का सौन्दर्यबोध आस्था के निरन्तर पुनराविष्कार एवं प्रखरतर साधना के संकल्प का आह्वान करता है । वे जीवन के निहित खतरों से सावधान करते हुए आत्मबोध एवं इस भाव के कार्य-कारण सम्बन्ध की खोज करते दिखाई पड़ते हैं । प्रेम और निर्वाण के पथ पर आगे कदम बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प साधकों में बड़ी गम्भीरता से जीवन के सूक्ष्म विश्लेषण की चेतना जगाते हैं । साधक के द्वैत को समाप्त कर उसे भगवत्ता की अनुभूति कराते हैं । यही भगवत्ता की निशिवासर अनुभूति ही शिल्पी की आध्यात्मिक अवधारणा है। यही शिल्पी के ज्ञान का शिखर और प्रेम का सच्चा स्वरूप है, जिसकी कृति, श्रम और पसीने के सौन्दर्य से 'मंगल घट' आकार पाता है, परिपक्व होता है ।
मनुष्य की नश्वरता के अतिक्रमण, आत्मज्ञान एवं वीतराग भाव से पुष्ट जैन धर्म के मूल तत्त्वों का वैचारिक निरूपण 'मूकमाटी' के प्रीतिकर सन्दर्भ हैं । कल्पनाप्रसूत प्रसंगों के माध्यम से मानवीय संवेदना की निहित सच्चाई और आर्द्र माटी की उज्ज्वल छवि का दर्शन कवि ने आधुनिकता के सन्दर्भ में भी किया है । वर्तमान सन्दर्भों को उकेरते, अनेक पदों में पतनशील मूल्यों के खोट से झाँकते अवबोध का वर्णन कम नहीं है । आर्थिक और राजनीतिक शक्ति, स्रोतों एवं उनकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन एवं सामाजिक सन्दर्भ में विकास का भावप्रवण वर्णन है 1
उच्चवर्गीय जनों की असहिष्णुता, गरीबों का सौहार्द, प्रेम, आत्मीयता और संवेदना के मानदण्डों का वर्णन 'मूकमाटी' में मिलता है । उदाहरणार्थ :
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"क्या सदय-हृदय भी आज / प्रलय का प्यासा बन गया ?
क्या तन-संरक्षण हेतु / धर्म ही बेचा जा रहा है ?