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बायें हिरण / दायें जाय -,
"जब दवा काम नहीं करती/ तब दुआ काम करती है ।” (पृ. २४१ ) काँटे से ही काँटा निकाला जाता है।" (पृ. २५६ )
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कहीं-कहीं ऐसी कहावतों पर सुन्दर भाषा का, कथन शैली की मौलिक भंगिमा का आवरण भी दीखता है :
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मूकमाटी-मीमांसा :: 413
- / लंका - जीत / राम घर आय ।" (पृ. २५)
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जब सुई से काम चल सकता है / तलवार का प्रहार क्यों ?
जब फूल से काम चल सकता है/ शूल का व्यवहार क्यों ?" (पृ. २५७)
उर्दू की प्रसिद्ध उक्ति 'दर्द का हद से गुज़र जाना ही है दवा हो जाना' को आचार्यजी ने इस प्रकार कहा है: पीड़ा की अति ही / पीड़ा की इति है ।" (पृ. ३३)
आचार्यजी यों तो साहित्य से भिन्न नितान्त अलग प्रकार की परम्परा के महापुरुष हैं, किन्तु साहित्य के मर्म से वे भली भाँति परिचित हैं। वास्तविकता यह है कि जितना भी श्रेष्ठ साहित्य लिखा गया है, वह साहित्यकारों द्वारा नहीं, सन्तों द्वारा ही लिखा गया है। हिन्दी साहित्य का भक्ति युग इसका साक्षात् प्रमाण है । अत: आचार्य विद्यासागरजी का यह हित की भावना से सम्प्रेषित सद्ग्रन्थ 'मूकमाटी' निश्चय ही उनकी साहित्य सम्बन्धी स्वयं की उक्ति के मानदण्ड से, साहित्य की कसौटी पर खरा उतरता है।
साहित्य के सम्बन्ध में आचार्यजी के शब्द हैं :
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हित से जो युक्त- समन्वित होता है / वह सहित माना है और / सहित का भाव ही / साहित्य बाना है,
सुख का समुद्भव - सम्पादन हो / सही साहित्य वही है
अन्यथा,/ सुरभि से विरहित पुष्प- सम
सुख का राहित्य है वह / सार - शून्य शब्द - झुण्ड" इसे, यूँ भी कहा जा सकता है/कि
शान्ति का श्वास लेता / सार्थक जीवन ही
स्रष्टा है शाश्वत साहित्य का ।” (पृ. १११)
आचार्यजी के 'मूकमाटी' ग्रन्थ की आधुनिक आलोचक भले ही प्रशंसा न करें, किन्तु आचार्यजी ने जिस भाव से प्रेरित होकर इस ग्रन्थ को मूर्तिमान् किया है, उस तक आज के साहित्यिक आलोचकों की पहुँच बहुत कम सम्भव है । अध्यात्म की दृष्टि, परहित समन्वित तप, सृष्टि के कण-कण को गुरु स्वरूप जानना - पहचानना - इन सब बातों के लिए, आधुनिकतम मनोरंजनों के पीछे भागता मानव समाज अभी मानसिक रूप से तैयार नहीं है। फिर भी सन्त जन कृपा करके अपनी वाणी - समभाव से सभी तक पहुँचाने के सत् प्रयत्न में कभी भी श्रम का अनुभव नहीं करते । 'मूकमाटी' इसी सत्य का एक सुन्दर प्रतिमान है।
पृ. 313
लो, पूजन-कार्य से निवृत्त हो
नीचे आया सेठ प्रांगण में
और वह भी
माटी का मंगल-कुम्मले खड़ा होना!.
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