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416 :: मूकमाटी-मीमांसा
बोरी में भरी हुई माटी की तुलना नववधू की लजीली चितवन से कर एक नई दृष्टि दी है ।
गदहे की पीठ पर लदी माटी की बोरी की रगड़ से आहत पीठ की कल्पना मात्र से सिहरती हुई माटी स्वयं को दोषी मान बैठती है और द्रवित हो उसकी पीड़ा से सहभागी बनने की भावना भाती है, जो भारतीय संस्कृति की सौहार्द्र और करुणा की अजस्र धारा से जुड़ी हुई है। जैन धर्म अहिंसा और प्रेम तथा विश्व बन्धुत्व की जिस महान् धारा से आज के मनुष्य को जोड़ता है, वही मानव धर्म है । दया और करुणा दोनों ही विपरीत मनोविकार हैं । आचार्य शुक्ल ने करुण को परिचित-अपरिचितों की सीमा के परे नि:स्वार्थ भाव से पर- दु:खकातर हो कर, दु:ख दूर करने की प्रवृत्ति कहा है, जबकि दया के साथ ही स्वार्थ भाव जुड़ जाता है । वासना और दया में कवि ने भेद किया है :
" वासना का विलास / मोह है, / दया का विकास / मोक्ष है ।" (पृ. ३८)
इसी करुणा भाव से आप्लावित है 'गदहा, जिसकी बौद्धिक सोच को कवि ने अत्यन्त सूक्ष्मता से चित्रित किया है :.
“मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / 'गर्द' का अर्थ है रोग
'हा' का अर्थ है हारक / मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ / ... बस, और कुछ वांछा नहीं / गद- हा गदहा``.!” (पृ. ४०)
माटी का मानसिक तादात्म्य गदहा के अन्त:करण से हो जाता है, तब “ परस्परोपग्रहो जीवानाम्" की सूक्ति चरितार्थ होती है । उपाश्रम की कवि कल्पना अद्भुत है :
"जीवन का 'निर्वाह' नहीं / 'निर्माण' होता है ।" (पृ. ४३ )
माटी को चालनी से चालने की क्रिया अध्यात्म का वह सोपान है, जहाँ भक्त अपने समस्त अहंकार का त्याग कर सद्गुणी, मृदुभाषी, मितभाषी हो जाता है। जो दूसरों के दुःख से दुःखी न हो, ऐसा व्यक्ति हृदयशून्य कहलाता है। ऐसा व्यक्ति मानव धर्म की महत्ता नहीं समझ सकता। गाँधीजी ने कहा था : “पापी से नहीं, पाप से घृणा करो” । कवि नर से नारायण बनने की कल्पना करते हुए कहता है :
"संयम की राह चलो / राही बनना ही तो / हीरा बनना है / स्वयं राही शब्द ही विलोम - रूप कह रहा है - / राही "ही"रा।” (पृ. ५६-५७)
संयम, अहिंसा, भारतीय धर्म साधना की ऐसी देन है, जिसे कवि भी नकार नहीं सका है। भौतिक सुखसुविधाएँ व्यक्ति को असंयमित बना देती हैं, इसके बारे में आचार्यश्री ने अपने विचार इस रूप में प्रस्तुत किए हैं :
“संयम के बिना आदमी नहीं / यानी / आदमी वही है / जो यथा-योग्य सही आदमी है / हमारी उपास्य देवता / अहिंसा है / और
जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है / वहाँ निश्चित ही / हिंसा छलती है ।
अर्थ यह हुआ कि / ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है।” (पृ. ६४)
बौद्ध धर्म की करुणा तथा जैन धर्म की अहिंसा ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, जिसे 'धम्मो दया- - विसुद्धो' तथा 'धम्मं सरणं गच्छामि' के द्वारा जाना जाता है । दैहिक सुख इस नश्वर देह को कुछ देर के लिए आकर्षित अवश्य करता है, किन्तु सभी यह जानते हैं कि यह संसार ही मिथ्या है, नश्वर है, फिर अपना बहुमूल्य जीवन क्यों व्यर्थ किया जाए ? कबीर ने इस धारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है :