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420 :: मूकमाटी-मीमांसा
है। शिल्पी के गृह में मुक्ता वर्षा भी एक प्रतीक है। 'मुक्ता' शब्द का अध्यात्म के क्षेत्र में अर्थ समस्त वासनाओं से मुक्त होने की स्थिति मानी जाती है । कबीर ने इसका सुन्दर चित्रण किया है :
"मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत न जाहिं ॥" जायसी ने भी इस मुक्तावस्था का चित्रण किया है :
"रबि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती॥" ये वे मोती हैं, जो चाहे वह इसे प्राप्त कर सकता है, किन्तु इसे प्राप्त करने में साधना रूपी श्रम अभीष्ट है। बिना साधना के हाथ कुछ भी नहीं लगता। केवल सांसारिक विषय-वासनाओं की पीड़ा ही झेलनी पड़ती है। साधना पथ की कठिनाई का चित्रण कबीर ने इस प्रकार किया है :
“यह तो घरु है प्रेम का, खाला का घरु नाहिं ।
सीस उतारै मुँह धरै, सो पैठे इह माहि ॥" जायसी ने भी जोगी वेषधारी रत्नसेन के समक्ष साधना मार्ग की अनेक कठिनाइयों का चित्रण कठिन समुद्रों और गहन वनों के माध्यम से किया है । छायावादी कवियों ने भी ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को कठिनाई-भरा माना है। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश प्राप्ति पथ पर बढ़ने के लिए आवश्यक मुक्तावस्था साधक को अत्यन्त कठिन प्रयास के पश्चात् ही कुछ पल के लिए मिलती है, तब इस दौर से गुज़रने के बाद कहीं भक्तिरूपी मुक्ता प्राप्त होती है । जो व्यक्ति सहज ही, बिना प्रयास इस मुक्ता को प्राप्त करना चाहता है, जायसी के अनुसार उसके हाथ में 'घोंघा' ही लगता है।
शिल्पी के मन में आए हुए तीन मनोविकारों के वर्णन के माध्यम से एक ओर तो कवि 'पृथ्वीराज रासो' काव्य के रचनाकार चन्द बरदाई की श्रेणी में आ खड़े होते हैं, जिन्होंने शशिव्रता विवाह प्रसंग में दो रसों का परिपाक अत्यन्त सुन्दरता से किया है कि पृथ्वीराज घोड़े की पीठ पर शशिव्रता का हरण करके बैठा है - दोनों हाथों से युद्धरत हो तलवार चला रहा है, आँखों में शशिव्रता के लिए अथाह प्रेम है । वीर और श्रृंगार का यह अद्भुत समन्वय रासो काव्य में अनेक स्थलों में मिलता है । जयशंकर प्रसाद ने भी घृणा और श्रृंगार का अद्भुत समन्वय अपनी पुरस्कार', 'आकाशदीप' आदि कहानियों में प्रस्तुत किया है। दूसरी ओर कवि ने राजा के मन में उदित भावों के माध्यम से जैन धर्म के अनुकूल सत्य और धर्म की जय की प्रतीति प्रस्तुत की है। यह कवि कर्म का कौशल है जो 'मूकमाटी' के कथ्य शिल्प के रूप में सामने आया
भारतीय धर्मग्रन्थों में महत्त्वाकांक्षा को तथा संचय' की प्रवृत्ति को हीन माना गया है । देखिए :
"साँई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥" आज जैन धर्म बड़े-बड़े धनपतियों के हाथों में सीमित हो रहा है । कवि ने इसे 'सेठ के दान' के माध्यम से व्यक्त किया है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कवि ने सागर और राहु के प्रसंग का चित्रण कर कालाबाज़ारी, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि सम-सामयिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है । आचार्यश्री अपने आस-पास (समाज) की अनैतिकताओं से अनभिज्ञ नहीं हैं। वे वचन पर नहीं, प्रवचन पर विश्वास करते हैं। वे पापपूर्ण कर्म को ही अपराधी बनाने की प्रक्रिया मानते हैं,