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मूकमाटी-मीमांसा :: 345 समाप्त हो जाती है और वे सभी पापभीरु बन जाते हैं लेकिन कुम्भकार विनयावनत हो राजा से कह उठता है : “अपराध क्षम्य हो स्वामिन्” तथा स्वयं अपने हाथों से मुक्ताओं को बोरियों में भरने लगता है । तभी सभी के मुख से ध्वनि निकलती है : “सत्य धर्म की जय हो,'सत्य धर्म की जय हो।” सन्त महाकवि ने बिना पुरुषार्थ से धन संग्रह करने का बहुत अच्छा रूपक लिखा है । महाकवि कहते हैं :
"अधिक अर्थ की चाह-दाह में/जो दग्ध हो गया है अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण यूँ-जान-मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है,/अर्थ-नीति में वह विदग्ध नहीं है।/कलि-काल की वैषयिक छाँव में प्राय: यही सीखा है इस विश्व ने/वैश्यवृत्ति के परिवेश में
वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य!" (पृ. २१७) चतुर्थ सर्ग - यह महाकाव्य का अन्तिम सर्ग है। इस सर्ग का शीर्षक है- 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' यह सर्ग सबसे बड़ा सर्ग है । इसके दो सर्ग भी किए जा सकते थे। वैसे यह सर्ग कथा प्रधान है तथा बीच-बीच में इतनी अवान्तर कथाएँ आ गई हैं जिससे यह सर्ग अकेला सर्ग न रहकर एक छोटा काव्य बन गया।
पूर्व कथा से आगे शिल्पी अपने कच्चे घड़े को अग्नि में रख देता है । घट को अग्नि परीक्षा देने के पश्चात् कलश का रूप मिलता है। कुम्भकार स्वयं अग्नि-परीक्षा देने को तैयार होता है । इसलिए अग्नि कह उठती है :
"मैं इस बात को मानती हैं कि/अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक
किसी को भी मुक्ति मिली नहीं/न ही भविष्य में मिलेगी।" (पृ. २७५) स्वयं कुम्भ भी अग्नि से उसके दोषों को जलाने के लिए कहता है :
"मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।" (पृ. २७७) जलते हुए अवाँ में कुम्भ पूरा दार्शनिक बन जाता है । तत्त्व चिन्तन बनकर अध्यात्म और दर्शन की गहराइयों में उतर जाता है और दोनों में कार्य कौन और कारण कौन – इसकी मीमांसा अग्नि देवता से निम्न प्रकार सुनने को मिलती
"दर्शन का स्रोत मस्तक है,/स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है।/दर्शन के बिना अध्यात्म-जीवन चल सकता है, चलता ही है/पर, हाँ !/बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं लहरों के बिना सरवर वह/रह सकता है, रहता ही है/पर हाँ ! बिना सरवर लहर नहीं।/अध्यात्म स्वाधीन नयन है
दर्शन पराधीन उपनयन ।” (पृ. २८८) आज अवाँ से कुम्भ सकुशल बाहर आया है। उसके मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा-सी। अब वह कलश कहलाने लगा - मंगल कलश।
इसके पश्चात् कथा का नया मोड़ प्रारम्भ होता है । कलश को खरीदने के लिए नगर सेठ का सेवक शिल्पी के पास आता है, जिसको देखकर कुम्भ और कुम्भकार दोनों प्रसन्न होते हैं । सेठ का सेवक जब कुम्भ का मूल्य कुम्भकार