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'मूकमाटी' का मुखर सन्देश
डॉ. सुरेश चन्द्र त्यागी
काव्य की गुणवत्ता उसके बृहदाकार से नहीं, उसके द्वारा व्यंजित उस सन्देश से निश्चित होती है जो युग-युग तक प्रेरक तथा नवीन बना रहता है। काव्य के भेदोपभेद करके उनका लक्षण निर्धारण अनेक आचार्यों द्वारा होता आया है । इन लक्षणों में मतैक्य नहीं है । वस्तुत: काव्य समीक्षा के स्थायी मानदण्ड निश्चित करना सम्भव नहीं है। युग के साथ काव्य का स्वरूप परिवर्तित होता है और समीक्षा के मूल्य भी बदलते हैं। जीवन की गतिशीलता ही काव्य और समीक्षा को गतिहीनता से मुक्त रखती है । बृहदाकार 'मूकमाटी' को शास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार समीक्षा करके महाकाव्य सिद्ध करना आवश्यक नहीं है । हठपूर्वक की गई ऐसी खींचतान से कवि के उस सन्देश की उपेक्षा हो सकती है जो 'मूकमाटी' के मूल में है । महाकाव्य संज्ञा से इस काव्य का मूल्य नहीं बढ़ता। इसका मूल्य तो उस सन्देश में निहित है जो मनुष्य को उच्चतर सत्य की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा देता है ।
आचार्य विद्यासागर जैन दर्शन के अधिकारी विद्वान् और साधक के रूप में तो प्रतिष्ठित हैं ही, कवि के रूप में भी उन्होंने सहृदयों के मध्य प्रशंसा अर्जित की है। वस्तुत: उनकी काव्य यात्रा ('नर्मदा का नरम कंकर, 'डूबो मत, लगाओ डुबकी,’ ‘तोता क्यों रोता ?', 'चेतना के गहराव में' से लेकर 'मूकमाटी' तक) उनकी साधना का ही एक आया है । काव्य एक उच्चस्तरीय कला है और उसकी प्रभावात्मकता असन्दिग्ध है । कवि अपनी कल्पना और संवेदना
मार्मिक अनुभूतियों को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करता है । कवि-कर्म वहाँ और भी कठिन हो जाता है जहाँ दार्शनिक सिद्धान्तों और आध्यात्मिक अनुभूतियों को काव्य के लिए आवश्यक मार्मिकता से संयुक्त करके काव्यबद्ध किया जाता है। ‘मूकमाटी' के माध्यम से कवि ने वैचारिक वैभव और मार्मिक सरसता के समन्वय का प्रयास किया है । आचार्य विद्यासागर साधक हैं और साधक की रचना निरुद्देश्य नहीं हो सकती । साहित्य के व्युत्पत्तिपरक अर्थ की व्याख्या करता हुआ कवि अपने साहित्यादर्श को इस तरह स्पष्ट करता है :
" जिस के अवलोकन से / सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है / अन्यथा सुरभि से विरहित पुष्प- सम सुख का राहित्य है वह/सार - शून्य शब्द - झुण्ड !" (पृ. १११)
इससे भी अधिक स्पष्ट रूप में कवि ने अपना एवं अपनी काव्य-सृष्टि का लक्ष्य इन शब्दों में व्यक्त किया है
:
“मैं यथाकार बनना चाहता हूँ / व्यथाकार नहीं । और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ / कथाकार नहीं । इस लेखनी की यही भावना है - / कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक / जागृत "जीवित" अजित ।” (पृ. २४५)
संस्कृति-विहीन कृति कालजयी नहीं हो सकती, कवि की यह मान्यता अन्य रचनाकारों के लिए भी दिशाबोधक है। 'मूकमाटी' की रचना के प्रयोजन का संकेत कवि ने 'मानस - तरंग' (पृ. XXIV) भूमिका में विस्तार से दिया : "... सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है । " अपने