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368 :: मूकमाटी-मीमांसा रखने से डरती है । वह स्वभाव से धर्मपरायण होती है । यह तो पुरुष की काम-पिपासा है जो नारी को कुमार्ग पर चलने के लिए बाध्य करती है तो दोष स्त्री का नहीं, पुरुष का है। पुरुष ने ही उसे परिग्रह' के रूप में अंगीकार किया है। द्रौपदी को जुए में लगाना इसका स्पष्ट दृष्टान्त है। आचार्य विद्यासागर ने नारी की जो विभिन्न छवियाँ यहाँ दर्शाई हैं उनमें जहाँ नारी के गुणों/विशेषताओं का इन्द्रधनुषी रंग मोहक लगता है, वहाँ उनका शब्द-विधान भी अत्यन्त ललित है । कवि जैसे भाषावेत्ता/भाषा वैज्ञानिक का रूप धारण कर लेता है । नारी को इसलिए उन्होंने 'नारी' कहा है चूँकि वह करुणा का आकर है, मैत्री का भण्डार है। उसमें किसी के प्रति कोई शत्रुता नहीं, न+अरि = नारी; दूसरा अर्थ यह भी है- "ये आरी नहीं हैं/सोनारी.."(पृ.२०२) - यानी ये काटने वाली नहीं, जोड़ने वाली हैं और एक-दूसरे को जोड़ती हैं अपनी करुणा से, अपनी मिलनसारिता से, सहृदयता से, स्नेह से।
जब नारी को 'महिला' कहते हैं तो इसका अर्थ है आधार/अवलम्बन देने वाली । वह निराश, उत्साहहीन मनुष्य में नया उत्साह संचरित करने वाली है । वह “धृति-धारणी जननी के प्रति/अपूर्व आस्था जगाती है" (पृ. २०२) । चूँकि पुरुष की रहनुमाई करती है, उसका मार्ग प्रशस्त करती है, उसे साध्य की प्राप्ति में सहायक होती है, इसलिए 'महिला' है वह । एक और अर्थ 'महिला' द्वारा आचार्यश्री ने व्यंजित किया है । जिस व्यक्ति में संग्रहपरिग्रह प्रवृत्ति अत्यधिक घर कर गई है, जिसमें असंयम है और संग्रह-व्याधि का रोग लग गया है, संयम की भूख मन्द पड़ गई है, उसकी भूख को बढ़ाने का काम करने वाली है 'महिला' :
“मही यानी/मठा-महेरी पिलाती है,/महिला कहलाती है वह..!"(पृ.२०३) ___ मनुष्य की काम भावना को संयत करने वाली, उसे संयम में रखने वाली महिला ही होती है । वही गृहस्थी को भी यानी विवाहित पुरुष को भी संयमाचरण की ओर प्रेरित करती है।
नारी को 'अबला' भी कहा जाता है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (१८८६-१९६४ ई.) की प्रसिद्ध पंक्तियाँ
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।" गुप्तजी ने ममतामयी, स्नेहसिक्त, करुणार्द्र नारी का यह अद्भुत चित्र खींचा है, जिसमें भारतीय नारी का व्यक्तित्व अभिमुखरित है । आचार्य श्री विद्यासागरजी जब नारी को अबला' रूप में निहारते हैं तो कह उठते हैं :
"जो अव यानी/ अवगम'-ज्ञानज्योति लाती है, तिमिर-तामसता मिटाकर/जीवन को जागृत करती है
'अबला' कहलाती है वह !" (पृ. २०३) वे ज्ञानालोक विकीर्ण करने वाली नारी को 'अबला' कहते हैं। यही नहीं, अबला में और भी गुण हैं । नारीअबला मनुष्य को दिवास्वप्नों से मुक्त करती है, भविष्य की रंगीन कल्पनाओं में भटकने से बचाती है तथा विगतअतीत के मोह से भी मुक्त करती है । उसे वर्तमान में जीना सिखाती है, उसे वर्तमान की ओर दृष्टयुन्मुखी बनाती है, यथार्थ से टक्कर लेने की सामर्थ्य प्रदान करती है, उसे सामने आई परिस्थितयों को समझने, उनसे जूझने की शक्ति देती है तथा वर्तमान समस्याओं का समाधान खोजने का बल जुटाती है। आज हमारे सामने समस्याओं का जो व्यूह मौजूद है क्या उसे मनुष्य अकेला, बिना नारी के सहयोग के भेद सकता है ? हम पर्यावरण से जूझ रहे हैं, भ्रष्टाचार के गर्त में