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जैन धर्म-दर्शन और साहित्य का अमर कोश : 'मूकमाटी'
__डॉ. राजकुमार पाण्डेय एवं डॉ. गणेश शुक्ल 'मूकमाटी' जैन धर्म-दर्शन के प्रख्यात विद्वान् एवं महान् साधक आचार्य विद्यासागर की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण काव्य-रचना है । वास्तव में इस कृति को महाकाव्य न कहकर जैन धर्म-दर्शन और साहित्य का अमर कोश कहना अधिक उपयुक्त है । आचार्यवर ने जहाँ एक ओर साहित्य की सम्पूर्ण सम्भावनाओं को सँजो कर रस-छन्द-अलंकारों से सुसज्जित करके आख्यानों और उपाख्यानों का समावेश करते हुए लगभग पाँच सौ पृष्ठों में फैले हुए तथा चार खण्डों में विभक्त इस महाकाव्य का विशाल स्वरूप संगठित किया है, वहीं दूसरी ओर अध्यात्म, तत्त्व दर्शन एवं योग साधना के विविध सोपानों, आत्मशुद्धि की अनेक मंज़िलों, जीवन की अनुभूतियों तथा लोक मंगल-कामना से जुड़ी हुई आत्मा के संगीत को भी इस काव्य में मुखरित किया है । इस कृति में मुक्त छन्द का जीवन्त प्रवाह और काव्य के रसास्वादन की अन्तरंग अनुभूति तो है ही, पिण्ड और ब्रह्माण्ड, जीवन और जगत्, व्यष्टि और समष्टि के समन्वय का इसमें सार्थक प्रयास भी है।
सम्पूर्ण महाकाव्य अपने मौलिक रूप में एक सार्थक प्रतीकात्मक काव्य है और यही कारण है कि साधना और दर्शन के समावेश के कारण प्रतीक योजना कहीं-कहीं दुरूह एवं उलझी हुई भी हमें प्रतीत होती है। मध्ययुगीन सन्त कवियों की तरह वे सान्ध्य भाषा में अपनी भावनाओं, अनुभूतियों और विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं जिसे जैन धर्मदर्शन एवं साधना के विविध स्तरों की वैयक्तिक अनुभूति के बिना पूरी तरह समझ पाना कठिन है । यद्यपि वे माटी जैसी क्षुद्र, पद दलित एवं निरीह वस्तु को अपने काव्य का विषय बनाते हैं किन्तु माटी के शोधन की वह प्रक्रिया, जिसका विश्लेषण साधक कवि ने किया है, ऊपर से जितनी सरल, सुगम और व्यवस्थित दिखाई पड़ती है पर वह वास्तव में वैसी नहीं है, क्योंकि आत्मशोधन की सम्पूर्ण प्रक्रियाएँ साधना की दृष्टि से अत्यन्त कठिन, जटिल एवं श्रम साध्य हैं।
___ यहाँ सबसे पहले इस महाकाव्य की प्रतीक योजना पर विचार करना उपयुक्त होगा। इसमें माटी' रूपी आत्मा को प्रतीक बनाया गया है । इस महाकाव्य के आरम्भ में 'माटी' के परिशोधन की प्रक्रिया का विश्लेषण किया गया है। उसका परिष्करण इसलिए आवश्यक है कि अपनी अज्ञानता के कारण वह कंकड़-पत्थर जैसे निरर्थक सांसारिक पदार्थों से जुड़ी हुई है। कूटना, छानना, कंकड़ों को हटाना आदि साधना की प्रारम्भिक स्थितियाँ हैं, जिनक मंगल घट बनने के योग्य हो सकता है।
सबसे पहले इस माटी' के भीतर स्वतः स्फूर्त कामना प्रस्फुटित होती है और उसे अपनी वास्तविक सत्ता का बोध होने लगता है । उसके साथ धृति-धारणी धरा, उस माटी को उसकी सत्ता के वास्तविक, शाश्वत स्वरूप का स्मरण दिलाती है कि उसमें विकास की असंख्य सम्भावनाएँ निहित हैं किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में आस्था की अनुभूति करे और उसे आत्मसात् कर ले। फिर वह समय आ जाता है जब कुम्भकार अपनी क्रूर, कठोर कुदाली से उस मिट्टी को खोदता है, उसे बोरी में भरता है और गदहे की पीठ पर लाद देता है। इसके बाद साधना द्वारा शोधन-परिशोधन की प्रक्रिया आरम्भ होती है। उससे कंकड़-पत्थर आदि वस्तुएँ अलग की जाती हैं, क्योंकि वे कंकड़ पूरी तरह न तो माटी से मिल पाते हैं और न ही उनमें जलधारण की क्षमता ही है।
_ 'मूकमाटी' महाकाव्य में निबद्ध इस रूपक का तात्पर्य यह है कि कोई भी जीव तभी साधना के लिए प्रस्तुत हो सकता है जब उसके अन्दर स्वत: साधना की भावना जाग्रत हो । गुरु उसमें यह क्षमता पैदा कर देता है। फिर उसके लिए आवश्यक होता है कि वह सांसारिकता से अपने को पूरी तरह अलग कर ले, क्योंकि सांसारिक वस्तुओं में उनकी