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406 :: मूकमाटी-मीमांसा
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और/इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव ।" (पृ. ३३) 0 "'भी' के आस-पास/बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य,
किन्तु भीड़ नहीं,/'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है।" (पृ. १७३) ० "धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, और/हम सब की
धरती में निष्ठा घनी रहे, बस ।” (पृ. २६२) "योग के काल में भोग का होना/रोग का कारण है, और/भोग के काल में रोग का होना/शोक का कारण है।" (पृ. ४०७) "संहार की बात मत करो,/संघर्ष करते जाओ! हार की बात मत करो,/उत्कर्ष करते जाओ!" (पृ. ४३२) "मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं। और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं।" (पृ. २४५) "हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और/जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है ।/अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और/निर्ग्रन्थ-दशा में ही
अहिंसा पलती है।" (पृ. ६४) सर्वांश में 'मूकमाटी' की तुलना किसी दूसरी कृति से अथवा शास्त्रीय मापदण्डों से उसकी विवेचना की जानी ठीक नहीं है । युगचेतना के रूप में नैतिक मूल्य और श्रमण संस्कृति के परिवेश की अवधारणा इस काव्य में है, जो एक वीतरागी, नंग-धडंग महात्मा का सृजन होने से मानव जीवन के अन्तर्बाह्य द्वन्द्वों का सटीक चित्रण करता है। सन्त कवि ने मूक माटी को मातृ रूप में देखा है और उसी के अनुरूप सबके लिए मंगल कामना की है :
“यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. ४७८) __ ऐसे श्रेष्ठ, उदात्त और दिशाबोधकारक काव्य सृजन और प्रकाशन के लिए उसमें निमित्त बने सभी लोग साधुवाद के पात्र हैं। ग्रन्थ सभी ग्रन्थालय और वाचनालयों में पहुँचना चाहिए । आधुनिक युग के युवक, युवतियाँ इसे जरूर पढ़ें, ऐसे प्रबन्ध होने चाहिए।
[सम्पादक- 'तुलसी प्रज्ञा'(त्रैमासिक), लाडनूं (नागौर) राजस्थान, अक्टूबर-दिसम्बर, १९९१]
नपान्तावा कर....----