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'मूकमाटी' : मानव जीवन के अन्तर्बाह्य द्वन्द्वों का सटीक चित्रण
डॉ. परमेश्वर सोलंकी जैसलमेरी (माडवी) भाषा में मनुष्य को माटी कहते हैं। "माटी केत?"= हे मनुष्य तूं कहाँ जा रहा है । और "माटी चेत?"= हे मनुष्य तूं चेता कर , सावधान हो- ये दो वाक्य छोटे होने पर भी अर्थ-गौरव भरे हैं। बेकळू = बालू = रेत=धूल को वहाँ माटी या मिट्टी नहीं कहते । दूसरे शब्दों में वहाँ माटी चैतन्य है । सुसंस्कारित है।
कवि के शब्दों में भी : “सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है और जिसका नामकरण हुआ है मूकमाटी।"
".."मढ़िया जी (जबलपुर) में/द्वितीय वाचना का काल था/सृजन का अथ हुआ और/नयनाभिरामनयनागिरि में/पूर्ण पथ हुआ/समवसरण मन्दिर बना/जब गजरथ हुआ।" अर्थात् श्री पिसनहारी मढ़िया जी (जबलपुर, मध्यप्रदेश) और नयनागिरि जी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) की पुण्यभूमि को सम्बोधित करके यह काव्य रचा गया और दूध में घी की तरह 'मूकमाटी' से काव्य तत्त्व प्रकट हुआ है जो श्रमण संस्कृति के शाश्वत सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना करता
है।
- 'मूकमाटी' में चार खण्ड हैं- १. 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' २. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' ३. 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और ४. 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' । इन चारों खण्डों का विधान और सम्पूर्ण काव्य का वितान लगभग ५०० पृष्ठों में है, जो परिमाण की दृष्टि से महाकाव्य की सीमाओं को छूता है । हालाँकि महाकाव्य की अपेक्षाओं के अनुरूप शास्त्रीय समीक्षा में 'मूकमाटी' खरा नहीं उतरता किन्तु उसमें माटी नायिका है, कुम्भकार नायक है, आध्यात्मिक रोमांस है, प्राकृतिक परिवेश है, शब्दालंकार, अर्थालंकारों के मोहक सन्दर्भ हैं और शब्द का, व्याकरण की सान पर तराशा नया-नया अर्थ है, जैसे :
"युग के आदि में/इसका नामकरण हुआ है/कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८) भावना भाता हुआ गदहा (गधा) भगवान् से प्रार्थना करता है :
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो!/यानी/गद का अर्थ है रोग । हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं/""बस,
और कुछ वांछा नहीं/गद-हा"गदहा!" (पृ. ४०) आधि, व्याधि, उपाधि की व्याख्या देखिए :
"व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे/जितनी आधि से है/और आधि से इतनी भीति नहीं इसे/जितनी उपाधि से। इसे उपधि की आवश्यकता है/उपाधि की नहीं, माँ ! इसे समधी - समाधि मिले, बस !/अवधि - प्रमादी नहीं।/उपधि यानी