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384 :: मूकमाटी-मीमांसा
" 'उत्पाद-व्यय-धौव्य-युक्तं सत्'/सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा/सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है,/जिसमें/भूत, भावित और सम्भावित
सब कुछ झिलमिला रहा है ।" (पृ. १८४) साधक कवि ने इस महाकाव्य के चौथे खण्ड में नियम-संयम के महत्त्व का प्रतिपादन किया है और उसके बाद दर्शन शब्द की विशद व्याख्या की है । इस दर्शन का स्रोत मस्तक है तथा स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है:
"स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है ।/अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन का होता है ।/...दर्शन का आयुध शब्द है-विचार,
अध्यात्म निरायुध होता है/सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार !" (पृ. २८८-२८९) अन्त में अतिथि साधु की अभिवन्दना, पाद-अभिषेक, पूजन और आहार दान की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण दिया गया है । अतिथि साधु अपने शिष्य सेठ की समस्त जिज्ञासाओं का समाधान करता है और नियति तथा पुरुषार्थ के सम्बन्धों की व्याख्या करता है :
" 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है/निश्चय से यही यति है,/और 'पुरुष' यानी आत्मा परमात्मा है/ अर्थ' यानी प्राप्तव्य प्रयोजन है आत्मा को छोड़कर/सब पदार्थों को विस्मृत करना ही
सही पुरुषार्थ है।” (पृ. ३४९) वास्तव में 'मूकमाटी' महाकाव्य साधक सन्त की साधना की एक ऐसी उपलब्धि है जिसमें जैन धर्म-दर्शन एवं साधना के अत्यन्त सूक्ष्म, गूढ़ एवं रहस्यमय तत्त्वों की पूर्ण व्याख्या हुई है।
साहित्य की दृष्टि से भी इस महाकाव्य की अनेक मौलिक उपलब्धियों को रेखांकित किया जा सकता है । कवि ने स्वयं 'साहित्य' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है :
"हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो
सही साहित्य वही है।" (पृ. १११) साहित्य के भाव पक्ष का जहाँ तक प्रश्न है इस कृति में कवि ने आद्यन्त अपनी कोमल भावनाओं एवं साधनागत अनुभूतियों का युगपत् व्यापक चित्रण किया है। प्रकृति के सुरम्य, मादक, मोहक रूपों की अभिव्यंजना में कवि को पूर्ण सफलता मिली है । इस अभिव्यंजना में सीमातीत शून्य में नीलिमा बिछी हुई है, प्राची के अधरों पर मन्द मधुरिम मुस्कान खेल रही है। कहीं सिन्दूरी धूल उठ रही है तो कहीं लज्जा के घूघट में डूबती हुई कुमुदिनी है । अस्ताचल में जाते हुए सूर्य का वर्णन कवि इन शब्दों में करता है :