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मूकमाटी-मीमांसा :: 395
शुचिता को धारण कर स्वयं साधारण होकर इन वृत्तियों को विरेचित कर साधारणीकरण की यही चिन्ता, दशा मनुष्य को पारलौकिता की ओर ले जा सकती है। माटी का मंगल कलश शुचिता का प्रतीक है। शुचिता को धारण करते ही मनुष्यों में असाधारण विपत्तियों का सामना करने की क्षमता आ जाती है। अन्तत: एक न एक दिन आखिर आतंकवाद घुटने टेकता ही है, जो मनुष्य की दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प निष्ठा पर अवश्य निर्भर करता है, तब सारे विरोधी भी हाथ मलते रह जाते हैं एक न एक दिन। लोक चेतनाएँ : आतंकवादी दुष्प्रवृत्तियों के जनक हमारे समाज में ही होते हैं। उनके पोषकों की कमी नहीं है। ऐसे ही चरित्रों के लिए आचार्यश्री प्रजापालक का उपालम्भ देकर सम्बोधित करते हैं :
“पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं, पाप-पाखण्ड करते हैं।/प्रभु से प्रार्थना है कि/अपद ही बने रहें हम !
जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आस्पद हैं।” (पृ. ४३४) 'मूकमाटी' के कथानक में बड़े पदवालों के प्रतीक हैं हाथी, और बिना पदवाले होकर भी शक्तिशाली हैं साँप । पदवाले
और बिना पदवाले दोनों ही प्रभावशाली हैं दमन और शमन में। पद और चरण जैसे शब्दों की व्याख्या ऐसे लोगों पर बड़ी सटीक और युक्तियुक्त बैठती है । वर्ण से शब्द, फिर शब्द की भी अभिधार्थ शक्ति का विश्लेषण एवं स्वत: लक्ष्यार्थ को और प्रतिपादित करना आचार्यश्री की अपनी विशेषता है । संयम की शक्ति के सम्बन्ध में एक और उद्धरण :
“नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी/अपने घुटने टेक देता है,
हार स्वीकारना होती है/नभश्चरों सुरासुरों को!" (पृ. २६९) लकड़ी की छड़ी के माध्यम से एक और करारी चोट हमारे प्रजातन्त्र की दण्ड प्रक्रिया पर देखिए :
"कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए।/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम । इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है /या
मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१) अधर में लटका देने वाली न्यायप्रक्रिया के प्रति संवेदनशील कवि की व्यथा देखें :
" 'आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय-सा लगता ही है। और यही हुआ
इस युग में इस के साथ।” (पृ.२७२) शक्ति का प्रयोग रक्षा के निमित्त किए जाने के सर्वथा औचित्य पर आचार्यश्री के उद्गार बड़े ही प्रेरक हैं :
“निर्बल-जनों को सताने से नहीं,/बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है।/...नीचे से निर्बल को ऊपर उठाते समय उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है,/उसमें उठानेवाले का दोष नहीं, उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है/हाँ, हाँ ! उस पीड़ा में निमित्त पड़ता है उठानेवाला।” (पृ. २७२-२७३)