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मूकमाटी-मीमांसा :: 399 'पूत का लक्षण पालने में"/यह सूक्ति/चरितार्थ होती है, बेटा!" (पृ. १४) ___ "बायें हिरण/दायें जाय-/लंका जीत/राम घर आय।" (पृ. २५) ० "उत्पाद-व्यय-धौव्य-युक्तं सत् ।” (पृ. १८४) 0 "परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।" (पृ. ४१) ० “धम्मो दया-विसुद्धो।” (पृ. ७१)
"धम्म सरणं गच्छामि।" (पृ. ७०)
"मुँह में राम/बगल में छुरी।" (पृ. ७२) - "दया-धर्म का मूल है।" (पृ. ७३) 0 “धम्म सरणं पव्वज्जामि।" (पृ. ७५)
0 “वसुधैव कुटुम्बकम् ।" (पृ. ८२) लोकोक्तियों और मुहावरों की सही पकड़ और फिर उस अर्थ को और अधिक धारदार बनाकर अर्थ की प्रभावपूर्ण प्रयोगधर्मिता से 'मूकमाटी' का अध्ययन रोचक और सरस हो जाता है। नवोपलब्धि : हिन्दी काव्य साहित्य में विविध आयामी लेखन की कमी नहीं है । आए दिन अनेक कविता संग्रह धड़ाधड़ प्रकाशित होकर पाठकों के सामने आ रहे हैं किन्तु सारगर्भित और सार्थक कृतियाँ बहुत कम पढ़ने में आती हैं । लेखन की इस भीड़भाड़ को चीर कर एकदम नई आभा, ओजस्विता और आस्था लेकर आई है 'मूकमाटी'।
___धर्म, दर्शन, अध्यात्म के सार तत्त्व को आज की सरस, सरल, लोकग्राह्य भाषा तथा मुक्त छन्द की मनोरम शैली में निबद्धकर आचार्य विद्यासागर ने काव्य रचना को एक नया आयाम दिया । यह कहना कठिन है कि अधिक परिमाण में यह कृति काव्य है या अध्यात्म । जहाँ कविता का आनन्द आता है, वहीं एकदम अध्यात्म, दर्शन अथवा कोई न कोई तत्त्वनिरूपण पाठक के सामने साकार होने लगता है। यह स्थिति भी अधिक देर तक सामने नहीं ठहर पाती और कविता, दर्शन, अध्यात्म के इस स्वरूप निरूपण-विश्लेषण में तत्काल कथानक आकर जुड़ जाता है । फिर सम्पूर्ण रचना-फलक एक श्रृंखला की भाँति साकार हो जाता है।
आश्चर्य की ही बात है कि माटी जैसी निरीह और पद दलित वस्तु को कवि ने अपनी काव्यकृति का विषय चुना और उसके स्वरूप निरूपण, विश्लेषण को इतनी भव्यता प्रदान कर दी, वहीं माटी पूजा का मंगल कलश बन कर आराध्य के, अपने इष्ट के साक्षात्कार का पर्याय बन जाती है। अत: अध्यात्म, दर्शन और काव्य की त्रिवेणी 'मूकमाटी' के पारायण से मन में पावन भावना की उद्भावना सहज रूप में हो जाती है और मनस दीक्षित होकर स्नातक-सा हो जाता है।
'मूकमाटी' का कथानक क्रमबद्ध होकर प्रत्येक खण्ड में विभाजित है । साथ ही साथ तत्त्वचिन्तन, दर्शन प्रत्येक खण्ड में विद्यमान होकर उसमें प्राणवायु का संचार करता जाता है । ग्रन्थ में खण्ड विभाजन है भिन्न-भिन्न शीर्षकों से किन्तु कथानक के प्रवाह में कहीं, तनिक भी गति-अवरोध नहीं मिलता है वरन् उसका नैरन्तर्य कहीं कम नहीं हो पाता । बड़े ही सहज, सरल और आसान भाव से पाठक इस काव्यकृति के अध्याय विभाजन में भी मानसिक रूप से