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मूकमाटी-मीमांसा :: 393
की उपलब्धि होती है ।
सर्गबद्धता : सर्गों की संख्या केवल चार है । छन्द की एकरूपता है । सर्गों की संख्या के बन्धन में शिथिलता माने जाने पर यह कृति महाकाव्य की कोटि में आ ही जाती है । अन्तिम खण्ड का फलक यदि गम्भीरता पूर्वक देखा जाय तो अपने आप में वह एक खण्ड काव्य है। लगभग ५०० पृष्ठों के इस ग्रन्थ को परिमाण की दृष्टि से देखा जाय तो महाकाव्य कहना अनुचित प्रतीत नहीं होता है ।
'मूकमाटी' के नामकरण पर कोई चर्चा करने की आवश्यकता इसलिए नहीं है कि कथानक में माटी की महत्ता प्रतिपादित की गई है । और माटी जड़ है अत: 'मूकमाटी' नामकरण सर्वथा उचित है ।
'मूकमाटी' में जीवन दर्शन
आचार्यश्री विद्यासागरजी के व्यक्तित्व के दो रूप हैं - एक तो वे वीतरागी सन्त हैं और दूसरे अत्यन्त संवेदनशील हृदय एवं सूक्ष्म अन्वेषी । काव्य सृजन उनके संवेदनशील होने की परिणति है ।
व्यक्ति, समाज, देश, जाति, धर्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, कला और संस्कृति आदि के निमित्त से मनुष्य का सृजन यदि सोद्देश्य हो, तो सृजन सार्थक होता है और सम्पूर्ण मानव जाति उस कृतित्व से उपकृत हो जाती है तथा कृतिकार का जीवन भी सार्थक हो जाता है ।
आचार्यश्री की 'मूकमाटी' एक ऐसा ही सोद्देश्य अक्षयदीप है। चार पुरुषार्थ - अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति में ही जीवन के उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं। मनुष्य जन्म से मृत्यु पर्यन्त जीवन की इस यात्रा में जिन पड़ावों से गुज़रना पड़ता है, वे अर्थ, धर्म, काम और फिर मोक्ष के ही तो चार पड़ाव हैं । जीविकोपार्जन के लिए अर्थ की प्राप्ति, अर्थ से धर्म, धर्म से काम और धर्मसाधक काम से ही मोक्ष की प्राप्ति का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में है । सामाजिक जनों के लिए अर्थ उपलब्धि अनिवार्य है। इसके अभाव में उसे परावलम्बी, पराश्रित रहना होगा। परिणामस्वरूप वह गृहस्थ धर्म
भी निर्वाह नहीं कर पाएगा। अर्थ सांसारिकता के निर्वाह के लिए साधन तो होता ही है, वह धर्म के संवाहन में भी बड़ा सहयोगी होता है ।
वैदिक वाङ्मय में गार्हस्थ धर्म में पितृ ऋण से मुक्ति के लिए काम की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। काया और मन के समाज सम्मत आचार को वैवाहिक जीवन की संज्ञा भी दी गई है। किन्तु काम का विस्तृत अर्थ सृजन से ही माना गया है। काम की यह वृत्ति अत्यन्त ही परिष्कृत और उद्दाम होती है, यदि वह धर्म साधक है तो । धर्म साधक काम भाव की प्राप्ति के पश्चात् ही मनुष्य मोक्ष की ओर प्रवृत्त हो पाता है । पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात् अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष प्राप्त करने वाला मनुष्य फिर साधारण मनुष्य नहीं रह जाता है। वह परम आत्मा हो जाता है। 'मूकमाटी' में इन चारों पुरुषार्थों को पाने की प्रेरणा है किन्तु आनुपातिक दृष्टि से धर्म और मोक्ष की बात प्रधान है ।
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आचार्यश्री का अर्थ परमार्थ है, और है समाज के लोगों को सद् व्यवहार पर चलने की प्रेरणा । धर्म का निर्वाह सामाजिकों के जीवन की चरम गति है । काव्य एवं सृजन, दर्शन, चिन्तन, मनन ही उनका धर्म साधक और काम क परिष्कार है । मनुष्य की ऐसी भाव दशा में निरन्तर स्थिति रहने से, मोक्ष - लाभ से भला उसे कौन रोक सकता है ? सन्तशिरोमणि की काव्य साधना, साहित्यिक सृजन, आध्यामिक चिन्तन ही उनका ऐसा पुरुषार्थ है, जिसमें मोक्ष की दिशा है, दशा है, धर्म है और दर्शन भी है।
'मूकमाटी' का दूसरा पक्ष आनन्दवादी भावभूमि पर आधारित है। धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिए रची जाने वाली इस काव्यकृति में लीन होकर पाठक को ऐसी अवस्था में ले जाने की क्षमता है जो विरल और असाधारण है।
लौकिकता से पारलौकिकता की ओर उन्मुख 'मूकमाटी' के सारे पात्र लौकिक हैं । कुछ चेतन और कुछ