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मूकमाटी-मीमांसा
शृंगार मूर्तिमान् होकर सामने उपस्थित होता है और पलक मारते ही दूसरे क्षण में अन्तर्धान हो जाती-सी
जादूगरी इस शृंगार वर्णन में है । कविता के इस आयन में रस है, रसायन भी है।
वात्सल्य : इस को शृंगार का ही भेद माना है। इसमें वात्सल्य का एक बड़ा ही प्यारा उदाहरण है जो कदाचित् ही अन्यत्र कहीं ढूँढ़ने से मिले :
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"माँ की गोद में बालक हो / माँ उसे दूध पिला रही हो
बालक दूध पीता हुआ / ऊपर माँ की ओर निहारता अवश्य, अधरों पर, ... बालक का मुख छिपा लेती है । " (पृ. १५८)
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नयनों में/और/कपोल-युगल पर / क्रिया-प्रतिक्रिया की परिस्थिति
भक्ति रस : शृंगार का दूसरा भेद, जिसमें धरती की वन्दना, अर्चना की गई है :
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"भूत की माँ भू है, / भविष्य की माँ भी भू । भाव की माँ भू है, / प्रभाव की माँ भी भू ।
भावना की माँ भू है, / सम्भावना की माँ भी भू ।
... यत्र-तत्र - सर्वत्रभू /'भू सत्तायां' कहा है ना।” (पृ. ३९९ )
"जय, जय, गुरुदेव की !/ जय, जय, इस घड़ी की ! .' शरण, चरण हैं आपके, / तारण तरण जहाज,
...
भव-दधि तट तक ले चलो / करुणाकर गुरुराज !'
. पूजन- कार्य पूर्ण हुआ / पंचांग प्रणामपूर्वक !" (पृ. ३२५)
शिल्पी की माटी से प्रीति है तो कहीं कुम्भ से । कहीं माटी का वात्सल्य शिल्पी से, माटी से या कुम्भ से भी है। रसों अनगिन उद्धरण भरे पड़े हैं इस दर्शन ग्रन्थ 'मूकमाटी' में ।
इसी प्रकार वीर रस, रौद्र रस, बीभत्स रस के सविस्तार उदाहरण 'मूकमाटी' में विद्यमान हैं । अलंकार योजना : अलंकारवादियों की मान्यता है काव्य की शोभा अलंकार होता है। यह चमत्कार दो प्रकार से होता
है - कहीं शब्द के माध्यम से तो कहीं अर्थ के द्वारा और कहीं दोनों के द्वारा । कहने का अर्थ है शब्द 'अर्थालंकार और दोनों से हो तो उभयालंकार ।
'चमत्कार हो तो
शब्दालंकार, अर्थ से
शब्दों का आलोड़न, विलोड़न, उसका तोड़-मरोड़ और फिर नया गठजोड़ कर, खिलवाड़ और फिर अर्थ की बाढ़ खड़ी कर देना पहली बार आचार्यश्री की लेखनी में पढ़ा है। धरणी, तीरथ, मदद, धरती, कम्बल, दया, नदी, नाली, मरहम, चरण, राख, हीरा, लाभ, दोगला, नारी जैसे शब्दों में अक्षरों की हेराफेरी कर नए सार्थक अर्थ को गढ़ लेना आचार्यश्री का चमत्कार है। तभी तो 'विषमता की नागिन, 'बोध की चिड़िया, 'क्रोध की गुड़िया' आदि के रूपक बड़े प्रभाव पूर्ण बन पड़े हैं ।
कथासन्धि : कथानक में अवस्थाओं और प्रासंगिक कथाओं की सन्धि का स्थल 'कथासन्धि' कहलाता है । वहाँ दो कथाएँ आपस में आकर मिलती हैं। कथा बहुलता के अभाव में नाट्य सन्धियों का समुचित समन्वय 'मूकमाटी' में किया गया है, जिसके स्थल प्रत्येक सर्ग में साफ़-साफ़ दृष्टिगोचर होते जाते हैं ।
पुरुषार्थ की उपलब्धि : महाकाव्य का एक लक्षण यह भी है कि अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष- इन चार में से कम से कम किसी एक वर्ग की प्राप्ति अवश्य ही होना चाहिए। आचार्यश्री की 'मूकमाटी' में धर्म और मोक्ष रूप दो पुरुषार्थों