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मूकमाटी-मीमांसा :: 383
सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है।" (पृ. ९) इस आस्था को आत्मसात् करने के लिए साधना के साँचे में स्वयं को ढालना पड़ता है। उसे प्रतिकार की पारणा छोड़नी पड़ती है। कर्मों का संश्लेषण होना और उसका विश्लेषण होना आत्मा की इसी परिणति पर आधारित है।
कवि के अनुसार प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि 'अति' के बिना इति' से साक्षात्कार सम्भव ही नहीं है। और 'इति' के बिना अथ' का दर्शन भी असम्भव है । जब पीड़ा की अति हो जाती है तो वहाँ से सुख आरम्भ हो जाता है। कवि ने आगे चल कर वासना के विभिन्न रूपों पर भी प्रकाश डाला है। इस वासना का विलास मोह है और दया का विकास मोक्ष है। इसलिए ‘पापी से नहीं, पाप से ; पंकज से नहीं, पंक से घृणा करनी चाहिए'- यही इस महाकाव्य की जगमगाती जीवन दृष्टि है ।
___संयम और अहिंसा के बिना मानव जीवन की कोई सार्थकता नहीं होती । यह अहिंसा निर्ग्रन्थ दशा में ही विकसित होती है । कवि के अनुसार :
___ “सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह
सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !" (पृ. ८३) कवि, माटी को माध्यम बनाकर 'सल्लेखना' की व्याख्या भी करता है। काय और कषाय को कृश करना ही सल्लेखना है । जब मनुष्य को ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है तो उसका चित्त स्थिर हो जाता है और तन में चेतना का निरन्तर नर्तन होने लगता है । आगे चल कर शिल्पी के माध्यम से कवि ने जैन धर्म के महाभाव की व्याख्या भी की है :
"खम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे,
सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी !" (पृ. १०५) कवि ने कण्टक और शिल्पी के वार्ताक्रम में मोह और मोक्ष की व्याख्या भी की है। वास्तव में यह सन्त के द्वारा प्रवक्त एक प्रकार की लक्षणा है । शिल्पी के अनुसार :
“अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही/मोह का परिणाम है और/सब को छोड़कर/अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।"
(पृ. १०९-११०) जैन धर्म में मौन का विशेष महत्त्व है । कथा प्रसंगों के बीच शिल्पी और माटी दोनों उसे निहारते हैं। इस मौन की भी अपनी भाषा होती है । उसे जो सुन सकता है, वह मौन से बड़ा होता है । आगे चल कर कवि प्रकृति और पुरुष के सम्बन्धों की भी व्याख्या करता है और मानव मात्र को दया और अभय का उपदेश देता है :
"सदय बनो!/अदय पर दया करो/अभय बनो! सभय पर किया करो अभय को/अमृत-मय वृष्टि
सदा-सदा सदाशय-दृष्टि/२ जिया, समष्टि जिया करो !" (पृ. १४९) साधक कवि सृष्टि के वास्तविक सत्य की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट कराता है। इस सृष्टि में जीव का जन्म और मरण दोनों ही अटल हैं। यह आना यानी जनन-उत्पाद है और जाना यानी मरण-व्यय है । कवि के शब्दों में :