________________
'मूकमाटी' की शब्द - साधना
डॉ. सुरेश चन्द्र जैन
'मूकमाटी' आचार्यप्रवर मुनि विद्यासागरजी का काव्य ग्रन्थ है । अनेक विद्वानों ने इस ग्रन्थ को महाकाव् मानते हुए भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि कहा है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने 'प्रस्तवन' में लिखा है कि इसमें सन्देह नहीं कि “ ‘मूकमाटी' मात्र कवि - कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है।"
सन्त की साधना और एक सच्चे कवि की काव्य साधना में विशेष अन्तर नहीं होता है। दृष्टि भेद अवश्य होता है । जैन सन्त की साधना, जैनेतर सन्तों की साधना से भिन्न होती है। लोक मंगल और लोक हित की भावना तो दोनों विद्यमान होती है, परन्तु दोनों में साध्य-साधन का अन्तर सर्वविदित है ।
यह अन्तर ‘मूकमाटी' में आदि से अन्त तक परिलक्षित होता है। जैन कवि और उनका काव्य रास-रंग का या ऐन्द्रिय इच्छाओं-भावनाओं की पूर्ति का स्रोत नहीं होता बल्कि संसार की असारता में राग-द्वेष से ग्रसित जन की आत्मा के उन्नयन का संगीत होता है, जिससे स्व-पर की पहचान प्राप्त कर, मनुष्य वस्तुस्वरूप वास्तविकता तक पहुँचने
का पुरुषार्थ करता है।
'मूकमाटी' में उसी 'पुरुषार्थ' की महत्ता प्रकट की गई और तदनुसार शब्दावली का प्रयोग भी किया गया है । काव्य की आत्मा रस माना गया है । काव्य की परिभाषाओं में " रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम् ” अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य होता है। प्राचीन आचार्यों के मत से दोषरहित, गुण- अलंकार सहित शब्द और अर्थ काव्य है । शब्द और अर्थ का सहभाव सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। राजशेखर ने इस 'सहभाव' को 'यथावत्' विशेषण से युक्त किया है। उनके मत से काव्य में यह सहभाव यथावत् अर्थात् सन्तुलित हो । इसलिए आचार्य की यह उक्ति‘“तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि " - अर्थात् शब्द और अर्थ दोष रहित हो, गुण युक्त हो, चाहे अलंकार कहीं-कहीं स्पष्ट न भी हों । प्रायः सभी आचार्यों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इसे स्वीकार किया है । आधुनिक समीक्षक आचार्य शुक्ल ने हृदय की मुक्तावस्था को रस दशा निरूपित करते हुए कहा है कि इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं ।
निष्कर्ष यह है कि यह शब्द - विधान ही कवि की शब्द-साधना कहलाती है। हर श्रेष्ठ कवि का अपना शब्द - विधान होता है । शब्द-भाषा और शैली से कवि अपनी अलग पहचान बनाता है। 'मूकमाटी' के कवि ने जैसा शब्द प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग बहुत कम कवियों ने किया है। यद्यपि इस प्रकार के प्रयोग से अधिकतर शब्द के व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ प्रकट करके, कवि ने चमत्कार की सृष्टि करने का प्रयत्न तो किया है, परन्तु इससे रस भंग भी कम नहीं हुआ है। वास्तव में 'अर्थबोध' ही शब्द शक्ति है । इसी शक्ति से शब्द और अर्थ एक विलक्षण सम्बन्ध से जुड़ते हैं । आचार्यश्री के शब्द प्रयोग का यदि वर्गीकरण किया जाए तो इस प्रकार से कर सकते हैं:
:
१. शब्द का व्युत्पत्त्यात्मक प्रयोग - गदहा, रावण, कुम्भकार, साहित्य आदि । २. शब्द का लक्ष्यार्थक प्रयोग- माटी, शूल, कंकर, वेतन आदि ।
३. शब्द का विलोमार्थक प्रयोग- राख, नदी, दया, नाली, तामस आदि ।
४. शब्द का सम्प्रदायार्थक प्रयोग - निमित्त, कषाय, बन्ध, हेय, उपादेय, मोह, मोक्ष, एषणा, देशना आदि ।
५. शब्द का प्रतीकार्थक प्रयोग - पात्र, कुम्भकार, माटी, पराग आदि ।
६. शब्द का विखण्डनात्मक प्रयोग - किसलय, धोखा, वेतन ।