________________
364 :: मूकमाटी-मीमांसा
के माध्यम से ही कवि ने श्रमण की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है । काव्य का नाम 'मूकमाटी' भले ही हो, काव्य में माटी सर्वत्र मुखर है। पहले माटी, फिर रूपान्तरित होकर कुम्भ और मंगल घट - सभी रूपों में जीवनोपयोगी सन्देश कवि ने प्रस्तुत किए हैं। श्रमण के बारे में कुम्भ कहता है :
"कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं / होश के श्रमण होते विरले ही, ... श्रमण का भेष धारण कर, / अभय का हाथ उठा कर,
शरणागत को आशीष देने की अपेक्षा, / अन्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले रावण जैसे शत्रुओं पर/रणांगण में कूदकर / राम जैसे
श्रम-शीलों का हाथ उठाना ही / कलियुग में सत्-युग ला सकता है, धरती पर यहीं पर /स्वर्ग को उतार सकता है । श्रम करे'' सो श्रमण ।” (पृ. ३६१-३६२)
कर्म का यह सन्देश क्या कभी अप्रासंगिक हो सकता है ? कुम्भ ही समता का भी सन्देश देता है- 'सबमें साम्य हो' । 'मूकमाटी' काव्य अनेक सन्देशों से भरा पड़ा है। माटी ने अपनी जीवन साधना में जो कुछ पाया है, उसे व्यक्त किया है । यहाँ मैंने कुछ संकेत दिए हैं। कवि का यह कथन विस्तारमयी व्याख्या से रोकता है :
"लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से / मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है ।" (पृ. १०९ )
पृ. ३९७
इनसे ही फूलता- फलता है वह 'आरोग्य का विशालकाय वृक्ष !