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मूकमाटी-मीमांसा :: 363 कुम्भकार माटी की दृष्टि में क्षमा की मूर्ति और क्षमा का अवतार है । क्षमा करने वाला ही क्षमा माँगने की उदारता दिखला सकता है । कुम्भकार का यह आदर्श जीवन की काम्य अवस्था का संकेत देता है :
"सम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी!/वैर किससे/क्यों और कब करूँ?
यहाँ कोई भी तो नहीं है/संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) । माटी ही कुम्भ का आकार ग्रहण करती है। कुम्भकार उसे चाक पर चढ़ाता है। गुरु का स्पर्श पाकर ही साधक का रूपान्तर सम्भव है । यह रूपान्तर सरल शब्दों में इस तरह अभिव्यक्त हुआ है :
"मान-घमण्ड से अछूती माटी/पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई, कुम्भ के रूप में ढलती है/कुम्भाकार धरती है
धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है।" (पृ. १६४) धरती से ऊपर उठना भौतिकता से ऊपर उठना है, आध्यात्मिकता की ओर प्रयाण है । कुम्भकार कुम्भ की खोट का परिमार्जन करके विविध संख्याओं और चित्रों से उसे सजाता है। लेकिन साधना के मार्ग में इतना ही तो पर्याप्त नहीं। अनेक प्रकार की परीक्षाएँ और समीक्षाएँ निरन्तर होती हैं। कुम्भ की अग्नि परीक्षा माटी के सृजनशील जीवन का तृतीय सर्ग है।
___ कुम्भकार को कुम्भ की साधना प्रगति को देखकर आश्चर्य होता है, क्योंकि समर्पण और आस्था के ही सहारे अत्यल्प काल में ऐसी सफलता साधकों को मिलती है। आध्यात्मिक ऊँचाई की दृष्टि से कुम्भ के ये शब्द अत्यन्त परिपक्व अनुभूति की ओर संकेत करते हैं :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,/वह यात्रा नाम की है
यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" (पृ. २६७) अग्नि परीक्षा दोषों को भस्मीभूत करने की क्रिया है। सच्चा साधक ऐसी परीक्षाओं से भयभीत नहीं होता। इसीलिए कुम्भ अग्नि से कहता है कि 'मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जिलाना है' । अग्नि परीक्षा से खरी हुई चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर अपना तो कल्याण करती ही है, दूसरों का भी मंगल करती है। कुम्भ का मंगल घट बनकर श्रेष्ठ पूजन कार्य में लगना माटी के सृजनशील जीवन का अन्तिम सर्ग है । कुम्भ का सेठ को प्रबोधन जीवन की राह पर एक सम्बल की भाँति है:
"सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है,/किन्तु वह/सन्तोषी अवश्य बनता है।" (पृ. ३५२)