________________
358 :: मूकमाटी-मीमांसा जो अंगातीत होती है/मेरा संगी संगीत है/सप्त-स्वरों से अतीत..!"
(पृ.१४४-१४५) शृंगार रस के निरूपण में कवि की सन्त दृष्टि प्रधान हो उठी है । इसीलिए तो उसे प्रतीत होता है :
"शृंगार के रंग-रंग ये/अंगार-शील हैं,/युग जलता जा रहा है ।" (पृ.१४५) नारी के कामिनी रूप की निन्दा मध्यकालीन हिन्दी के भक्त कवियों में भी मिलती है । ऐहिक काव्य में शृंगार के दैहिक आलम्बन की व्याप्ति को मुनिजी ने अस्वीकार किया है। विशुद्ध प्रेम तो देहातीत होता है, वही साध्य भी है । करुणा और शान्त रस की भी विवेचना बड़ी सार्थक तथा विचारोत्तेजक है । करुणा नहर की तरह है और शान्त रस नदी की तरह । नहर खेत में जाती है, दाह मिटाकर सूख जाती है किन्तु नदी, सागर में जाकर राह को मिटाकर सुख पाती है। आगे कवि कहता है:
"करुणा तरल है, बहती है/पर से प्रभावित होती झट-सी। शान्त-रस किसी बहाव में/बहता नहीं कभी
जमाना पलटने पर भी/जमा रहता है अपने स्थान पर।" (पृ. १५६-१५७) करुण रस जीवन का प्राण है, वात्सल्य जीवन का त्राण है और शान्त रस जीवन का गान है । जैन साहित्य में शान्त रस की प्रधानता क्यों है, इसका समुचित उत्तर पाने के लिए 'मूकमाटी' का पारायण अपेक्षित है ।
आचार्य कवि एक-एक स्थिति, एक-एक प्रक्रिया, एक-एक यन्त्र को जाँचते, परखते हुए और उसमें निहित जीवन के सन्देश को उद्घाटित और व्याख्यायित करते हुए आगे बढ़ता है। कुलाल चक्र के विषय में उसकी उक्ति अनुपम एवं अनूठी है :
"कुलाल-चक्र यह, वह सान है/जिस पर जीवन चढ़कर
अनुपम पहलुओं से निखर आता है ।" (पृ.१६२) अन्तत: शिल्पी उसकी खोट को चोट देकर कुम्भ के आकार में उसे उत्थापित कर देता है । फिर उस कुम्भ पर कुछ संख्याओं, चित्रों और कविताओं का सृजन किया गया, जिसका अभिप्राय विस्तार से अंकित होता है । इसी क्रम में तथाकथित साम्यवादी उद्घोषणाओं से अलग तत्त्वान्वेषी दृष्टि से कवि मानव मात्र की एकता एवं समता का बीज मन्त्र अंकित करता है :
"हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा,/तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! और,/'भी' का कहना है कि/हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ !"
(पृ. १७२-१७३) 'ही' पश्चिमी सभ्यता है । लोकतन्त्र की सुरक्षा भी' में है।
महाकाव्य के तीसरे खण्ड का नामांकन किया गया है 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' । इस खण्ड के आरम्भ में धरा और समुद्र के सम्बन्धों के आधार पर शोषण की जड़ता को निरूपित किया गया है। न्याय, रिश्वतखोरी, स्वार्थप्रियता, संघर्ष आदि समस्याओं का इस खण्ड में विचार किया गया है। कवि ने 'नारी' की एकदम नई व्याख्या दी है :
" "न अरि' नारी"।" (पृ. २०२)