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354 :: मूकमाटी-मीमांसा
हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनें / 'बस
और कुछ वांछा नहीं/गद"हा"गदहा"!" (पृ. ४०) गदहे का यह दार्शनिक शब्द अन्वय कहीं से उसकी परम्परागत हास्य व्याख्या के मेल में नहीं है । लेकिन, जहाँ आचार्य विद्यासागर उसकी कार्यसक्रियता का ज़िक्र करते हैं, वहाँ हास्य अनायास ही आहूत हो गया है :
"उसका अपना साथी-सहयोगी/आहूत हुआ/अवैतनिक गदहा।"(पृ. ३४) यहाँ गदहे के साथ जुड़ा विशेषण 'अवैतनिक' हास्य की स्मित रेखा उभारने के लिए पर्याप्त है । यह ठीक वैसा ही विशेषण विधान है, जैसा कभी अज्ञेय ने इन पंक्तियों में किया था :
"मूत्रसिंचित मृत्तिका के वृत्त में/तीन टांगों पर खड़ा नतग्रीव
धैर्यधन गदहा।" (इत्यलम्, पृ. १६६) इस धैर्यधन गदहे से 'मूकमाटी' में आए ‘अवैतनिक गदहे' की व्यंजना विनोद के स्तर पर कम प्रभावशाली नहीं है। लेकिन, ऐसे हास्य की अपेक्षा सुधाराकांक्षी व्यंग्य आचार्य विद्यासागर के अधिक अनुकूल है । इसका कारण यही है कि धर्म, चिन्तन और उपासना के क्षेत्र में अपनी विशिष्टता प्रमाणित करते हुए भी उन्होंने परिवेश के सच के प्रति अपनी
आँखों को लगातार खुला रखा है। परिणामत: समाज, संस्कृति, राजनीति और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आए विभिन्न स्खलनों से वे अपरिचित नहीं हैं। उनकी स्वाभाविक चिन्ता है कि सारे सनातन और शाश्वत मूल्य अपना अर्थ खोने लगे हैं। धर्म की अधोगति के सन्दर्भ में आचार्य विद्यासागर ने कालचक्र की इस विसंगति पर सीधा प्रहार किया है :
"कहाँ तक कहें अब !/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर ।/और/प्रभु-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी/बाँस बन पीट सकती है/प्रभु-पथ पर चलनेवालों को
समय की बलिहारी है !" (पृ. ७३) समय इतना बदल गया है कि कथनी और करनी, लिखित और कथित, दृष्टि और कर्म में पर्याप्त अन्तराल है। दानवत्ता अब दानवता में बदल गई है, भारत पूरी तरह महाभारत बन गया है। परिवर्तन की इस प्रवृत्ति के सन्दर्भ में आचार्य विद्यासागर ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सूत्र की नई, युगानुरूप व्याख्या की है :
“ “वसुधैव कुटुम्बकम्"। इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/आज
धन ही कुटुम्ब बन गया है/घन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) भौतिकता के प्रसार के कारण ही समाज के सारे आदर्श और मूल्य बदल गए हैं। कवि ने मौजूदा गणतन्त्र का नया मूल्यांकन इसी आलोक में किया है :
"इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है या/मनमाना 'तन्त्र' है !" (पृ. २७१)