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352 :: मूकमाटी-मीमांसा
सांसारिक बन्धन ही मानव मात्र को कष्ट दिलाने के लिए सबसे जटिल/प्रबल कारण हैं । बन्धनों की शिथिलता जीवन के सुख का पर्याय है और इनका टूट जाना ही मुक्ति का उपाय है । इनके टूटने की प्रेरणा प्रदान करना ही 'मूकमाटी' का सन्देश है और जीवन को सुखमय बनाने की प्रेरणा देना ही इस कृति का प्रयोजन है :
"बन्धन-रूप तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही
मोक्ष है ।/इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है।" (पृ.४८६) उद्देश्य : 'मूकमाटी' में लौकिक एवं अलौकिक पक्षों का वर्णन करते हुए कवि ने महत् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए स्वयं ही 'मानस तरङ्ग' में उद्घोषित किया है : “जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना तथा युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है...तथा नूतन-शोध-प्रणाली को आलोचन के मिष लोचन देना है।" इसके साथ ही साथ विश्वबन्धुत्व-भावना का विकास, दया और अहिंसा की स्थापना,जीवन को गौरवान्वित करने वाली भावनाओं का उदात्तीकरण भी इस 'मूकमाटी' में हुआ है। इस पर आरूढ़ हो, उन्हें धारण कर मानव, महामानव जैसे पद को धारण/प्राप्त कर सकता है । 'मूकमाटी' का उद्देश्य शुष्क और नीरस हृदयों में शुद्ध एवं सात्त्विक कर्म-धर्म की प्रवृत्तियों का प्रवाह करना है । जो सतत आस्था, विश्वास, अनुशासन, समर्पण, समता और शील आदि के धारणपालन से ही सम्भव है । अत: निश्चित ही 'मूकमाटी' भारतीय पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का निरूपण करती हुई मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य साधती है तथा उसी की प्राप्ति में सतत निरत रहती, रहने का सन्देश देती है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कृतिकार सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति अपने उद्देश्य की भावना भाते हैं :
“यहाँ"सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल/विलसित हों
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ.४७८) सन्देश और प्रयोजन : प्राणीमात्र के जीवन में महत् उद्देश्यों की प्राप्ति, पूर्ति हेतु 'मूकमाटी' कार ने मानवतावादी जीवन मूल्यों की मनोरम व्याख्या प्रस्तुत की है तथा वेदना को चिर सुख में बदलने की प्रभु से प्रार्थना भी की है। वह सम्पूर्ण विश्व के तामस को अपने में भर लेना चाहते हैं और प्रतिफलस्वरूप सृष्टि में समता प्रवाहित कर देना चाहते हैं। विश्व प्रेम को स्थापित करते हुए उन्होंने अपना सन्देश मुखरित किया है :
"सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी!" (पृ. १०५) और सम्पूर्ण सृष्टि में मानव धर्म की स्थापना करने हेतु उन्होंने स्पष्ट किया है :
"दिवि में, भू में/भूगर्भो में/जिया-धर्म की
दया-धर्म की/प्रभावना हो"! (पृ. ७७-७८) कवि का सन्देश पीड़ित और व्याकुल संसार में सुख और समृद्धि की सरिता प्रवाहित करता है । इसके लिए उन्होंने 'स्व' और 'पर' को समझने का अनोखा सन्देश दिया है।