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'मूकमाटी' में व्यंग्य-विनोद
डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी शैली और वचन भंगिमा के रूप में व्यंग्य की चर्चा हर कालखण्ड की, हर विधा की, हर रचना के सन्दर्भ में होती रही है। सृजन के स्तर पर अनुभव को साकार करने के विभिन्न प्रतिरूपों में से एक व्यंग्यशैली भी है, जिसमें जीवन की विसंगतियों तथा मिथ्याचारों को एक विशिष्ट अंदाज़ में प्रस्तुत किया जाता है । व्यंग्य का यह विशिष्ट अंदाज़ अनुभव, शिल्प, भाषा, सम्प्रेषण सभी स्तरों पर सामान्य सृजन से भिन्न होता है । व्यंग्यशैली अनुभव और अध्ययन, प्रहार और निरीक्षण, अभिव्यक्ति और प्रयोग आदि की सावधान और बेपरवाह, लाक्षणिक और बोधगम्य, आकर्षक और प्रभावशाली अभिव्यंजना है । व्यंग्य सर्जना के समानान्तर रचनाकार हास्य-विनोद की प्रस्तुति की दिशा में भी सतत सक्रिय रहे हैं। हास्य का व्यावहारिक और साहित्यिक अनुभव सहज ही आनन्दमय होता है। अपनी मनोरंजनधर्मी विनोदवृत्ति के कारण हास्य की सार्वभौम और व्यापक प्रासंगिकता से भला किसे इनकार हो सकता है। समस्त रागद्वेषों से असम्पृक्त हास्यविनोद की भावना कोमल और निपट मनोरंजनकारी होती है। यही कारण है कि व्यंग्य - विनोद का प्रसार गरीब की झोपड़ी से लेकर राजप्रासादों तक, शृंगार से लेकर भक्ति तक है। संसार की हर भाषा का साहित्यिक फलक हास्य और व्यंग्य के सहज संयोजन से अनुप्राणित है । घोर दार्शनिक और वैचारिक रचनाएँ भी इसके प्रभाव क्षेत्र में हैं, जैसे आचार्य विद्यासागर की काव्यकृति 'मूकमाटी' ।
इस श्रेष्ठ महाकाव्य की सघन आध्यात्मिक - दार्शनिक विचार-सम्पदा के बीच व्यंग्य और विनोद के कतिपय प्रसंगों और फुहारों ने इस काव्यकृति को अतिरिक्त आकर्षण प्रदान किया है । हास्य और व्यंग्य का अपारम्पिक समायोजन कवि आचार्य विद्यासागर की शब्दसृष्टि की एक विलक्षणता है । भले ही हास्य और व्यंग्य के बारे में उनकी निजी स्थापनाएँ चिन्तन की दार्शनिक गम्भीरता से आवृत्त हैं पर उनके महाकाव्य में आए व्यंग्य-विनोद के अवसर प्रहार और सरसता के संकल्प की ही सिद्धि करते हैं । आचार्यप्रवर ने हास्य का निषेध उन सारे लोगों के लिए किया है जो अपने भीतर आध्यात्मिक वेद-भाव का विकास करना चाहते हैं और स्थितप्रज्ञ होते हैं । अपनी इस हास्यधारणा को उन्होंने शिल्पी के माध्यम से व्यक्त किया है :
"खेदद-भाव के विनाश हेतु / हास्य का राग आवश्यक भले ही हो किन्तु वेद-भाव के विकास हेतु, / हास्य का त्याग अनिवार्य है हास्य भी कषाय है ना ! / हँसन - शील / प्राय: उतावला होता है कार्याकार्य का विवेक / गम्भीरता धीरता कहाँ उसमें ?
बालक-सम बावला होता है वह / तभी तो ! / स्थितप्रज्ञ हँसते कहाँ ?” मोह-माया के जाल में / आत्म-विज्ञ फँसते कहाँ ?" (पृ. १३३ - १३४)
अपनी इस उच्च दार्शनिक चिन्तन शिला पर अवस्थित वैचारिकता के कारण ही उन्होंने हास्यकवियों के सबसे पुराने और प्रिय अवलम्बन की भी नई व्याख्या की है । अमीर खुसरो से लेकर आज तक की हिन्दी कविता में गदहा हास्य र का लोकप्रिय आलम्बन है । 'मूकमाटी' का 'गदहा' भगवान् से प्रार्थना करता है:
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"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / गद का अर्थ है रोग