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'मूकमाटी' : युग चेतना के स्वर
अज्ञात
विषमताओं से आक्रान्त समय में महाकाव्य का लिखा जाना अति दुष्कर कार्य है, साथ ही अभिनन्दनीय भी । कारण, महाकाव्य में समस्त जीवन बोध को रूपायित किया जाता है, जिसमें अनेक समस्याओं का समाधान सहज ही प्राप्त हो जाता है । 'मूकमाटी में जीवन के विभिन्न पक्षों का यथायोग्य एवं सुन्दर समायोजन हुआ है जिनके द्वारा कव
युग स्वरूप को सम्बोधित किया है। 'मूकमाटी' युग चेतना के स्वर की प्राण शक्ति है। इसमें लौकिक और अलौकिक पक्षों का सुन्दर वर्णन कर कवि ने मानवता को प्रतिष्ठित किया है। इसी उद्देश्य, सन्देश, प्रयोजन में कवि की महत्ता, hara की दृष्टि और युग की तस्वीर निरूपित हुई है।
'मूकमाटी' में लौकिक पक्ष : लौकिक पक्ष के अन्तर्गत कर्मकाण्ड, पूजा पद्धति, ईश्वर आराधना, व्रत, नियम, परिवार, समाज, राजनीति, धर्म आदि की व्याख्या कर उनके आदर्श स्वरूप को चित्रित किया गया है। अलौकिक पक्ष : अलौकिक पक्ष में शुद्धि, सात्त्विकता, आचारवाद, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, संयम और तप आदि की आवश्यकता पर बल देकर उनके स्वरूपों को व्याख्यायित किया गया है।
मानव का आभूषण है, इन्हीं कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य अपने विकास रूप को प्राप्त होता है। सत्कर्मों में निरत रहना ही सच्चा कर्म है । आज इसके विपरीत परिणामों के कारण लोग सत्कर्मों से विमुख होकर मात्र कर्मकाण्ड में ही लीन रहते हैं । ऐसी स्थिति में उन्हें विकृति ही हाथ लगती और मनुष्य पतित रूप / दशा को प्राप्त होता जाता है। आचार्य विद्यासागरजी ने कर्मकाण्ड के इसी स्वरूप को वर्णित किया है :
"उस पावन पथ पर / दूब उग आई है खूब ! / वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर / केवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की / भीड़ के कारण !” (पृ. १५१ - १५२)
सत्पथ पर चलता हुआ मनुष्य कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखता । वह अपने लक्ष्य / उद्देश्य की प्राप्ति में निरन्तर साधना करता हुआ आगे बढ़ता रहता है -- सरिता के समान, साथ में संकल्प - नियम लेकर। तभी वह उत्तुंग शिखर का स्पर्श कर पाता है । आज आदमी व्रत और नियमों की अवहेलना कर लक्ष्य को 'शार्टकट' के रूप में प्राप्त करना चाह रहा है। यही शार्टकट उसकी समस्याओं का मूल कारण है। विद्यासागरजी ने व्रत नियमों की अवहेलना करने वाले आस्थाविहीन मानव का चित्र खींचा है :
"ये अग्नि परीक्षा नहीं दे सकते अब, / कोई प्रतिज्ञा छोटी-सी भी मेरु- सी लग रही है इन्हें, / आस्था अस्त-व्यस्त सी हो गई, भावी जीवन के प्रति उत्सुकता नहीं - सी रही।" (पृ. २९२)
धर्म मानव जीवन को जोड़ता है। ईश्वर की आराधना सतत एकाग्रता और श्रद्धा, समर्पण से होती है। ऐसी ही पूजा - भक्ति श्रेयस् देने वाली होती है। सात्त्विक और सत्कर्मों से पूरित आस्था और विश्वास से की गई प्रार्थना ही सार्थक होती है । आज की पूजा-पद्धति में सिर्फ स्वार्थता, लोलुपता और संकीर्णता आ गई है। आचार्य विद्यासागरजी ने पथ भ्रमित पूजा-पद्धति का प्रचार करने वालों का चित्र चित्रित किया है :
" आज श्वास - श्वास पर / विश्वास का श्वास घुटता - सा