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332 :: मूकमाटी-मीमांसा
कभी भी किसी जीवन को / पद- दलित नहीं करूँ, हे प्रभो !" (पृ. ११५ )
जो जीव अपने जैसा जीव दूसरों में मानते हैं वे कभी भी दूसरों को नीचा गिराने की नहीं सोचते । आचार्यश्री तो प्राणीमात्र के कल्याण की भावना रखते हुए सोचते हैं कि ये भी मेरे जैसे दुखी हैं, अत: इनको भी रास्ता मिल जाए। इसी करुणा के वशीभूत होकर आचार्यों / सन्तों ने प्राणियों के कल्याण के लिए मार्ग सुझाया है ।
'लेनिन' का कथन था : “क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्भव नहीं।” आचार्यश्री दलितोत्थान के दो मूल मन्त्र समाज को देना चाहते हैं :
(१) शक्तिशाली पद पर रहते हुए भी मैं किसी को उसके पद से नहीं गिराऊँगा ।
(२) जो किसी कारण से या स्वयं पद- दलित हैं, उनका उत्थान करूँगा ।
जो ऐसा नहीं करता उसे वे करुणाहीन मानते हैं। 'मूकमाटी' में नाग-नागिन के इस संवाद में उनके ये मूलमन्त्र इस रूप में सामने आते हैं
:
"हमें नाग और नागिन / ना गिन, हे वरभागिन ! / युगों-युगों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि / इस वंश-परम्परा ने / आज तक किसी कारणवश किसी जीवन पर भी / पद नहीं रखा, कुचला नहीं / अपद जो रहे हम !
यही कारण है कि सन्तों ने / बहुत सोच-समझ कर / हमारा सार्थक नामकरण किया है
'उरग/हाँ ! हाँ !/हम पर कोई पद रखते / हमें छेड़ते "तो"
हम छोड़ते नहीं उन्हें // जघन्य स्वार्थसिद्धि के लिए
किसी को पद - दलित नहीं किया हमने, / प्रत्युत, जो / पद-दलित हुए हैं
किसी भाँति, / उर से सरकते - सरकते / उन तक पहुँच कर / उन्हें उर से चिपकाया है, प्रेम से उन्हें पुचकारा है, / उनके घावों को सहलाया है ।" (पृ. ४३२ - ४३३)
आचार्यश्री तो यहाँ तक लिखते हैं कि दीन-दुखी जीवों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलक आए, अन्यथा छिद्र तो नारियल में भी हुआ करते हैं । दयाहीन आँखें नारियल के छिद्र के समान हैं। जिस ज्ञान के माध्यम से प्राणीमात्र के प्रति संवेदना जाग्रत नहीं होती, उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है । और वे आँखें किसी काम की नहीं, जिनमें देखने-जानने के बाद भी संवेदना की दो-तीन बूँदें नहीं छलकतीं ।
कुछ राजनीतिज्ञ दलितों के दमन को दलितों से मुक्ति का उपाय मानते हैं किन्तु आचार्यश्री इस के पक्षधर नहीं हैं। वे चिकित्सकों के मुख से कहलवाते हैं :
" मात्र दमन की प्रक्रिया से / कोई भी क्रिया / फलवती नहीं होती है।” (पृ. ३९१)
माँ का विश्वास पालन में होता है, सताने या मारने में नहीं। सच्ची माता दूसरों के पुत्रों को भी अपने ही पुत्रवत् मानती है। आचार्यश्री बड़े ही उदारदृष्टि वाले हैं। वे आतंकवादियों को भी इसी भारत माता की सन्तान मानते हुए उनकी समस्याओं का समाधान करने तथा उनकी रक्षा करने का सन्देश देते हैं। 'आतंक' का यह कथन इस भाव की प्रेरणा देता है :
" सन्तान हो या सन्तानेतर / यातना देना, सताना
माँ की सत्ता को स्वीकार कब था / ... हमें बताना !" (पृ. ४७५ )
वास्तव में हमें असहायों में भी स्वयं को देखना चाहिए । जब हम ऐसा करेंगे तो कोई भी दलित या घृणित