________________
340 :: मूकमाटी-मीमांसा में श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने लिखा है, क्योंकि स्वयं महाकवि ने काव्य के अन्त में सर्गों का विभाजन निम्न प्रकार किया है :
"...कुम्भकार का संसर्ग किया सो/सृजनशील जीवन का आदिम सर्ग हुआ। ...अहं का उत्सर्ग किया/सो/सृजनशील जीवन का/द्वितीय सर्ग हुआ। ...तुमने अग्नि-परीक्षा दी/उत्साह साहस के साथ/जो/सहन उपसर्ग किया सो/सृजनशील जीवन का/तृतीय सर्ग हुआ। /बिन्दु-मात्र वर्ण-जीवन को तुमने ऊर्ध्वगामी ऊर्ध्वमुखी/जो/स्वाश्रित विसर्ग किया,/सो
सृजनशील जीवन का/अन्तिम सर्ग हुआ।" (पृ. ४८२-४८३) इस प्रकार स्वयं महाकवि ने अपने महाकाव्य को सर्गों में बाँटकर खण्ड, अध्याय जैसे नामों को कोई स्थान नहीं दिया है। कथावस्तु : 'मूकमाटी' महाकाव्य का प्रारम्भ बिना मंगलाचरण के हुआ है। यद्यपि मंगलाचरण करने की बहुत प्राचीन परम्परा रही है तथा बड़े-बड़े जैनाचार्यों ने इस परम्परा का निर्वाह किया है, लेकिन महाकवि स्वयं ही पंच-परमेष्ठियों में आचार्य परमेष्ठी हैं, जो मंगलस्वरूप हैं। अत: स्वयं मंगलस्वरूप होने पर मंगलाचरण का विशेष औचित्य नहीं रहता, सम्भवत: इसीलिए मंगलाचरण करने की परम्परा का निर्वाह नहीं हुआ है। कथा का प्रारम्भ होता है प्रात:काल की बेला से, धरती और माटी के वार्तालाप से । धरती माँ है और माटी उसकी बेटी है । माँ-बेटी का यह सम्बन्ध काव्य में अन्त तक चलता है । सरिता तट की माटी धरती माँ के सामने अपना हृदय खोल कर रखती है और अपने दुःखों का रोना रो देती है । और पूछ बैठती है अपनी माँ से कि उसकी - माटी की पर्याय से इति कब होगी :
"इस पर्याय की/इति कब होगी ?/इस काया की
च्युति कब होगी ?/बता दो, माँ "इसे !" (पृ. ५) और वह माँ से तीन वस्तुएँ देने को कहती है :
"और सुनो,/विलम्ब मत करो
पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) कुछ देर मौन रहकर धरा माटी को समझाती है। उसे दुलारवश बेटी नहीं 'बेटा' कहकर सम्बोधित करती है, कुछ दृष्टान्त देती है। इससे माटी को कुछ सान्त्वना मिलती है। धरती माटी का उत्तर सुनकर प्रसन्न होती है और वह कह उठती है:
"कल के प्रभात से/अपनी यात्रा का/सूत्र-पात करना है तुम्हें ! प्रभात में कुम्भकार आयेगा/पतित से पावन बनने, समर्पण-भाव-समेत/उसके सुखद चरणों में/प्रणिपात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का/सूत्रपात करना है तुम्हें ।" (पृ. १७) माँ और बेटी के मध्य दार्शनिक चर्चा होती है। थोड़ी ही देर में एक शिल्पी आता दिखाई देता है । वह शिल्पी कुम्भकार ही है। महाकवि ने उसी का नया नाम शिल्पी दिया है। कुम्भकार का नामकरण कैसे हुआ है, इसकी कवि ने बहुत सुन्दर खोज की है:
“ 'कुं' यानी धरती /और /'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो