________________
318 ::
मूकमाटी-मीमांसा
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / गद का अर्थ है रोग हा का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ *““बस,/और कुछ वांछा नहीं / गद- हा गदहा!” (पृ. ४० )
गदहा की अर्थगत तुच्छता गद- हा यानी रोगहारक, रोग निवारक के रूप में उन्नत हो गई है ।
"यही मेरी कामना है / कि / आगामी छोरहीन काल में बस इस घट में / काम ना रहे !" (पृ. ७७)
कामना और काम ना का यह एक सार्थक प्रयोग है ।
विलोम रूप प्रयोग : (१) लाभ - भला (पृ. ८७) (२) नाली-लीना (पृ. १७८) (३) नदी - दीन (पृ. १७८) (४) राही - हीरा (पृ.५७) (५) राख - खरा (पृ.५७) ।
'मूकमाटी' के काव्य रूप के सम्बन्ध में भी यहाँ कुछ कहना चाहिए। इसमें दो मत नहीं हो सकते हैं कि यह एक प्रबन्ध काव्य है । महाकाव्य, खण्डकाव्य आदि प्रबन्ध काव्य के भेदों का विचार करते हुए यह भी स्पष्ट है कि यह महाकाव्य की श्रेणी में रखने योग्य है । आपत्ति उठाई जा सकती है कि महाकाव्य के जो लक्षण आचार्यों ने प्रतिपादित किए हैं उसमें से कतिपय लक्षण इस काव्य में उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, जैसे- सर्ग संख्या, छन्द योजना आदि । कुछ लक्षण नहीं मिलते तो इसके लिए किसी रचना को विशिष्ट काव्य रूप से बहिष्कृत करना तर्कसंगत नहीं है । प्रतिभा की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता का वह अपमान है ।
काव्य समीक्षण के मापदण्ड भी परिवर्तनीय हैं। परिवर्तन सृष्टि का नियम है, अत: काव्य समीक्षण के मापदण्ड उसके लिए अपवाद नहीं हो सकते । सर्जनशील रचना के स्तर निर्धारण में मापदण्ड सहायक है। सहायक प्रमुख पद के दावेदार कैसे हो सकेंगे । 'महाकाव्य' की धारणा में मुझे लगता है मुख्यतः 'महत्' तत्त्व का विचार किया जाना चाहिए। वही उसकी आत्मा है । शेष तत्त्व अपनी जगह ठीक हो सकते हैं किन्तु वे आंशिक हैं । यह महत् तत्त्व किसी एक आयाम में हो तो महाकाव्य की मान्यता उस काव्य को प्राप्त होनी चाहिए। वस्तु, पात्र, प्रतिपाद्य, शैली तो आयाम हैं किसी प्रबन्ध काव्य के । और क्या हम कवि प्रतिभा से भी यह कांक्षा रख सकते हैं कि वह नियम के दायरों में अपना प्रस्फुटन करे ।
'मूकमाटी' की महानता उसके प्रतिपाद्य के साथ, चिन्तन के साथ, जीवन दर्शन के साथ जुड़ी है और नि:शंक रूप से यह एक सफल महाकाव्य है ।
पृ. ७.
सत्ता शाखत होती है....
वट के रूप में अवतार लेता है, यही इसकी महत्ता है!