________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 329
“यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. १७८) इस प्रकार 'मूकमाटी' में आचार्य श्री विद्यासागरजी ने समाजवाद के उन रूपों, पक्षों का उद्घाटन किया है जिनके स्तम्भ और भित्तियों पर समाजवाद का महल खड़ा हो सकता है। सच्चे सामाजिक और समाजवादी बनने के लक्ष्य को सामने रखते हुए हमें विवेक-बुद्धि को जाग्रत करना चाहिए तथा भेदभाव समाप्त करना चाहिए, यही कवि की धारणा 'मूकमाटी' में मूक नहीं बल्कि मुखरित होती है :
"भेद-भाव का अन्त हो/वेद-भाव जयवन्त हो।" (पृ. ४७४)
'मूकमाटी' में दलितोत्थान के स्वर नाम, दाम और चाम के प्रलोभन से परे अध्यात्म के परम रसिक श्रमणोत्तम आचार्य विद्यासागरजी नाम से 'यथा नाम तथा गुण' हैं, काम से 'सत्य काम' हैं, काया से जिनवर-सम और वाणी से सत्यवादी हैं। उनके वचन 'प्रवचन' और साधना अनुकरणीय है। उनके द्वारा रचित/कथित साहित्य 'साहित्य' के हितकारी भावों से समन्वित है। वे जो कहते हैं वह उनका अनुभव है, उनकी भावना है, इसीलिए वे प्राणीमात्र के शुभचिन्तन एवं उद्धार के प्रेरक हैं। महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 'साहित्य' ( 'बंगला', पृ. ८) में साहित्य के सम्बन्ध में कहा था : “सहित शब्द से साहित्य की उत्पत्ति हुई है। अतएव धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है । वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है, यही नहीं वरन् यह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का अतीत के साथ निकट का मिलन कैसे होता है।" आचार्य श्री विद्यासागरजी तो प्राणीमात्र के हितैषी हैं, अत: उनकी कृतियों में भी प्राणी-हित सर्वत्र परिलक्षित होता है । डॉ. जी. शान्ताकुमारी, अर्नाकुलम् (कोच्ची) केरल के विचार ‘परछाइयाँ मौन साधक की' में द्रष्टव्य हैं : "प्रतिभावान् तपस्वी कवि आचार्य श्री विद्यासागरजी ने आध्यात्मिक जीवन की अजन-धारा का निर्बाध प्रवाह कर ऐसा साहित्य प्रस्तुत किया है, जो भारतीय/हिन्दी साहित्य की अक्षयनिधि बन गया है। उन्होंने प्राचीनता-अर्वाचीनता, आध्यात्मिकता-आधिभौतिकता, परम्परागत दार्शनिक चिन्तन की गहराई के साथ ही कार्ल मार्क्स के प्रत्ययशास्त्र की गम्भीरता का ऐसा वैचारिक सामंजस्य उपस्थापित किया है, जिसके कारण सन्त हो कर भी वे इस सदी के नए मानव के प्रतिनिधि बन गए हैं।"
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाकवि हैं। कवि मात्र सर्जक ही नहीं होता अपितु यथार्थ के धरातल पर खड़े हो कर भविष्य की कल्पना के चित्र अपनी कृति में उकेरता है । राजनाथ शर्मा द्वारा सम्पादित 'साहित्यिक निबन्ध' (पृ. ३७१) में अवलोकनीय है बाबू गुलाबराय की दृष्टि : "...कवि या लेखक अपने समय का प्रतिनिधि होता है। उसको जैसी खाद मिल जाती है, वैसी ही उसकी कृति होती है। वह अपने समय के वायु मण्डल में घूमते हुए विचारों को मुखरित कर देता है । कवि वह बात कहता है, जिसका सब लोग अनुभव करते हैं, किन्तु जिसको सब लोग कह नहीं सकते । सहृदयता के कारण उसकी अनुभव शक्ति जोरों से बढ़ी-चढ़ी रहती है।"
“सम्पूर्ण प्राणियों में मनुष्य ही एक मात्र प्राणी ऐसा है जो अपने कर्मों को ही नहीं, अपने आप को भी अपने चिन्तन की वस्तु बना सकता है । मनुष्य की यह क्षमता उसे पशुओं से भिन्न बनाती है" - ‘उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र' (अनुवाद-रमेश उपाध्याय) में पाओलो फ्रेरे का यह कथन परम सत्य है। फिर जो मनुष्यों में उत्तम श्रमण हैं उनके मन में तो प्राणी मात्र के उत्थान की भावना होती ही है।