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324 :: मूकमाटी-मीमांसा यानी सभी सुखी हों, सभी आलस्य (प्रमाद) से रहित हों, सभी कल्याण को देखें, किसी को भी दु:ख नहीं हो। इसी कामना के साथ सद्गृहस्थ देव पूजन के समापन पर विश्व-शान्ति की कामना करता हुआ कहता है :
“सम्पूजकों को प्रतिपालकों को, यतीन को यतिनायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शान्ति को दे । होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा। होवे वर्षा समय पै तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा ॥ होवे चोरी न जारी, सुसमय वरतै, हो न दुष्काल मारी।
सारे ही देश धारें, जिनवर-वृष को, जो सदा सौख्यकारी।"(शान्ति-पाठ, ६-७) इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति में विश्वशान्ति की कामना के साथ-साथ 'विश्व-बन्धुत्व' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना भी भायी गई है । किन्तु आज के इस विषम दौर में धन आधारित व्यवस्था के कारण इन भावनाओं ने या तो अपने अर्थ खो दिए हैं या अपने अर्थ बदल लिए हैं। 'धन' जो कभी साधन था, आज साध्य बन गया है। इस चिन्ता से प्रेरित 'मूकमाटी' का रचनाकार लिखता है :
" "वसुधैव कुटुम्बकम्" इस व्यक्तित्व का दर्शन-/स्वाद - महसूस इन आँखों को/सुलभ नहीं रहा अब!/यदि वह सुलभ भी है तो भारत में नहीं,/महा-भारत में देखो!/भारत में दर्शन स्वारथ का होता है हाँ-हाँ !/इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है/कि/“वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है/वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना
आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।” (पृ.८२) इस सोच के परिणामस्वरूप हमारी आध्यात्मिकता को ही नहीं बल्कि समाजवादी स्वरूप को भी ठेस पहुंची है । धनलिप्सा की दौड़ में व्यक्ति ने अपने सुख-चैन को तो खोया ही है, दूसरों के सुख-चैन को भी नष्ट कर दिया है। स्वयं के संचय के लिए वह दूसरों के मुँह का निवाला भी छीनने से नहीं डरता। आज व्यक्ति को सामाजिक बनाने के लिए धन के पीछे दौड़ने वाले पूँजीवादी दिमाग़ को परे करना पड़ेगा, क्योंकि संसार में रहकर हमें संसार से मैत्री का भाव ही रखना चाहिए। आखिर हम वैर करें भी तो किससे ? यहाँ हमारा वैरी है ही कौन? वैर पशु प्रवृत्ति है, मानवीय नहीं। मानव तो मैत्री भावना से बनता है। रचनाकार की कामना है :
"सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी !/वैर किससे/क्यों और कब करूं?
यहाँ कोई भी तो नहीं है/संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) असामाजिकता, अन्याय, उत्पीड़न और वैर-भाव का बहुत बड़ा कारण हमारे नेतागण हैं, जिन्हें स्वार्थ ने अन्धा बना दिया है। वे पद' पर बैठकर पद के विरुद्ध आचरण करते हैं। अब राजा, प्रजा का अनुरंजन न कर, प्रजा का दोहन और शोषण करता है । वह बातें तो बड़ी-बड़ी करता है किन्तु स्वयं वैसा आचरण नहीं करता । 'कथनी और करनी' की इस भिन्नता ने नेतृत्व के प्रति आस्था को ही कमज़ोर नहीं किया बल्कि कहीं-कहीं तो नेता को नायक से खलनायक की स्थिति में पहुँचा दिया है । आज सच्चे नेता कम और तथाकथित नेता अनगिनत हैं । स्वयं का आचरण पवित्र नहीं होने तथा पवित्र दिखने के कारण 'समाज' के बीच विश्वास कम हुआ है। इसीलिए आचार्यश्री कामना करते